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दान करने वाले में अहंकार का भाव

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

दान देना शुभ कर्म है, परन्तु अक्सर ऐसा हो जाता है कि दान करने वाले में अहंकार का भाव पैदा हो जाता है। अहंकार का भाव पैदा हो जाना अशुभ कर्म है। शुभ कर्म होने के बावजूद दान व्यक्ति में अहंकार का अशुभ भाव पैदा कर सकता है। इस से सावधान रहने की बहुत ज़रूरत है। दान किया जाये, परन्तु अहंकार का भाव रखकर नहीं। दान किया जाये, तो मन में यह धारणा हो कि “दान करना मेरा धर्म है, मेरा कर्तव्य है। दान देकर मैं किसी पर अहसान नहीं कर रहा।”

यूद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को कहा था, “मैं कर्मों के फल की इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता, अपितु “देना कर्तव्य है”, यह समझकर दान देता हूँ”। – वनपर्व, महाभारत।

आधुनिक दुर्योधन, दु:शासन, और कर्ण

(अमृत पाल ‘सिंघ’ अमृत)

दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से युधिष्ठिर को छल से जुए में हरा दिया था। युधिष्ठिर की भी बुद्धि फिर गयी और उसने अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुए के लिए दाँव पर लगा दिया। शकुनि ने पाँसा फेंका और युधिष्ठिर जुए में द्रौपदी को भी हार गया।

उसके बाद राजा धृतराष्ट्र की उस सभा में जो हुया, उसका ज़िक्र करने में ज़ुबान थरथर्राने लगती है। उस बे-हद शर्मनाक घटना को लिखते-लिखते कलम भी कांपने लगती है।

सत्ता का, सियासी ताक़त का नशा, और हर तरह के नशे से बढ़कर होता है। और जो सियासी ताक़त के क़ाबिल न हो, उसको अगर सियासी ताक़त मिल जाये, फिर तो उस से बढ़कर कोई दुराचारी और पापी नही होता। रावण तो सिर्फ एक उदाहरण है सियासी ताक़त के नशे में पागल हुये ऐसे दुराचारियों की।

दुर्योधन शायद रावण से भी बढ़कर कोई काम करने पर उतरा हुया था। सियासी ताक़त के नशे में चूर दुर्योधन ने हुक्म दिया कि पांचाली द्रौपदी को भरी सभा में पेश किया जाये।

दुर्योधन रिश्ते में द्रौपदी का देवर ही तो था। हाँ, यह बात अलग है कि उस सभा में कोई लक्ष्मण सा देवर न था। लक्ष्मण कोई हर युग में ही पैदा होते हों, ऐसा तो नहीं है न। पैदा हो भी जायें, तो लक्ष्मण कभी ऐसी निर्लज सभा में तो नहीं बैठेंगे। दशरथ की सभा हो या राम का दरबार हो, तो लक्ष्मण हो सकते हैं वहाँ। पर धृतराष्ट्र के दरबार में लक्ष्मण नहीं होते। दुर्योधन जैसों की राज-भक्ति कम-अज़-कम लक्ष्मण जैसे धर्मवीर तो नहीं कर सकते।

दुष्ट नीच को राजसत्ता का संरक्षण मिल चुका है। अब वह रिश्ते में अपनी ही भाभी को भरे दरबार में नंगा करने का हुकुम दे डालता है।

बादशाह अन्धा हो, तो कोई बात नहीं, पर अगर उसकी अक्ल पर पर्दा पड़ जाये, तो पूरे राष्ट्र की तबाही की संभावना हो जाती है। अपने रिश्तेदारों, अहलकारों, और समर्थकों को अगर वह पाप से नहीं रोकता, तो उसके वे पापी रिश्तेदार, अहलकार, और समर्थक तो तबाह होंगे ही, साथ में अपने राष्ट्र को भी तबाही की कगार पर ला खड़ा करेंगे।

पुत्र-मोह में अन्धे हुये धृतराष्ट्र को उस वक़्त यह ख़्याल तक न होगा कि उसकी अपनी हुकूमत की तबाही का बीज बोया जा रहा था। धृतराष्ट्र का बेटा और दुर्योधन का भाई दु:शासन द्रौपदी को केशों से पकड़ कर राजा की उस भरी सभा में घसीटता हुया लाया। उस वक़्त द्रौपदी सिर्फ एक ही कपड़े में थी। उसको उस राजा की सभा में ऐसे ही घसीटते हुये लाया गया, जो राजा उस का रिश्ते में ससुर भी लगता था। तथाकथित शूरवीरों की उस भरी सभा में उसके अपने ही रिश्तेदार और बज़ुर्ग थे ससुराल की ओर से। राजा की वह सभा उस के ससुरालियों की सभा ही तो थी।

सियासी ताक़त के बुरे नतीजे का चिन्ह बन चुके दुर्योधन ने हुकुम दे डाला कि द्रौपदी को भरी सभा में नंगा कर दो।

भाई गुरदास जी ने लिखा है:

अंदर सभा दुसासनै मथै वाल द्रौपती आंदी॥
दूतां नो फुरमाइआ नंगी करहु पंचाली बाँदी॥ (पउड़ी ८, वार १०)।

युधिष्ठिर ने जुआ खेला और जुए में द्रौपदी हार दी थी, तो क्या अब द्रौपदी यूर्योधन और उसके भाइयों की भाभी न रही थी? क्या अब धृतराष्ट्र उसका ससुर न रहा था? क्या देवव्रत भीष्म अब द्रौपदी के दादा-ससुर न रहा था?

युधिष्ठिर ने जुए में अपनी पत्नी को खो दिया था? या, धृतराष्ट्र ने जुआ खेला और अपनी बहू को खो दिया था?

बूढ़ा हुआ देवव्रत भीष्म उस वक़्त द्रौपदी के सवालों का जवाब देते-देते “धर्म” को ही मज़ाक का विषय बना डालता है।
महाभारत ग्रंथ में पढ़ना देवव्रत का धर्म पर उस वक़्त दिया गया व्याख्यान।

आख़िर, द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उसकी रक्षा किसी राजा धृतराष्ट्र ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर वह रक्षा कुल-पुरोहित कृपाचार्य ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उस की रक्षा शस्त्रधारी योद्धा द्रोण या अश्वथामा ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उसकी रक्षा अम्बा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण करने वाले देवव्रत भीष्म ने नहीं की।

ये क्या रक्षा करते? इनको तो यह भी नहीं पता होगा कि राष्ट्र-भक्ति और राज-भक्ति में बहुत फ़र्क होता है। यह तो राज-धर्म भूल चुके धृतराष्ट्र और पापी दुर्योधन के हुकुम मानने को ही राष्ट्रवाद समझ रहे होंगे। ख़ुद को राष्ट्रवादी होने का दिखावा करते-करते अपनी आँखों के सामने एक अबला का अपमान होते देख कर भी उसको रोकने का कोई कारगर तरीक़ा का ढूंढ पाये।

राष्ट्र के हित की बात तो यही होती कि दुष्ट राजा और उसके अहलकारों को सियासी ताक़त से महरूम कर दिया जाता। बाद में भी तो युद्ध के मैदान में दुर्योधन और उसकी दुष्ट चौकड़ी को मारना ही पड़ा।

लेकिन, एक दुर्योधन मर गया, तो इस का मतलब नहीं कि दुर्योधन फिर कभी पैदा नहीं हुया। अपने आस-पास देखोगे, तो पाओगे कि दुर्योधन अभी भी भेस बदल कर यहाँ-तहां घूमता रहता है। सियासी ताक़त के नशे में झूमते कई दुर्योधन कभी-कभी अख़बारों की सुर्खियां भी बन जाते हैं, हालांकि ज़्यादातर उनके पापों की चर्चा होती ही नहीं है।

दिल्ली में “निर्भया” बलात्कार काण्ड करने वाले आज के दौर के दुर्योधन ही तो हैं। वह बेचारी भी तो किसी की बेटी थी। उन नीच बलात्कारियों के साथ हमदर्दी रखने वाले कौन हैं? वे सब दुर्योधन के भाई आधुनिक दु:शासन और दुर्योधन के दोस्त आधुनिक कर्ण ही तो हैं।

छोटे-मोटे दुर्योधन तो सोश्ल-मीडिया पर भी बहुत मिल जाते हैं। किसी भी लड़की की फोटो किसी सोश्ल-मीडिया वेबसाइट पर डाली और बदनाम करना शुरू। द्रौपदी भी किसी की बेटी, किसी की बहन, किसी की पत्नी, और किसी की माँ थी। आज का दुर्योधन इंटरनेट पर जिस लड़की को बे-वजह बदनाम करता है, वह भी किसी की बेटी और किसी की बहन होती है। अक्ल के अन्धे ऐसे बहुत दुर्योधन तो इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पाते कि अपनी असल पहचान ही बता सकें। कभी वह किसी लड़की की प्रोफ़ाइल के पीछे छिपे हुये मिलते हैं, तो कभी राष्ट्रवाद या धर्म का मुखौटा पहने पाये जाते हैं। दिखावे के धर्म-कर्म के काम दुर्योधन क्या नहीं करता था?

आधुनिक दौर में तो ऐसे दुर्योधन भी बैठे हैं, जो मर चुकी औरतों के चरित्र पर भी कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। जब ऐसे दुष्टों के मुखौटे उतरेंगे, तो उनके असली चेहरे बहुत ही भद्दे निकलेंगे।

आधुनिक दुर्योधन और उनके दु:शासन और कर्ण यह भी जान लें कि दुर्योधन और उसकी दुष्ट मंडली का क्या हुआ? गुरु ग्रंथ साहिब जी में भक्त नामदेव जी का शब्द है: –

मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥

(६९३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

युद्ध के मैदान में दुर्योधन का मान तोड़ ही दिया गया था। भक्त कबीर साहिब का फुरमान है:

दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥

(११६३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

नीच की कड़वी बात का उत्तर न दो

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

जिसके मन में पाप ही भरा-पड़ा हो, ऐसे सम्बन्धी से नज़दीकी बढ़ा कर क्या पाओगे? नीच आदमी से दोस्ती करोगे, तो क्या मिलेगा? नीच पुरुष को सम्मान दोगे, तो क्या मिलेगा? ओछी सोच रखने वाले को अपने पास जगह दोगे, तो क्या मिलेगा?

कभी सोचना, युधिष्ठिर को क्या मिला दुर्योधन को सम्मान दे कर।

पाण्डु की जब मौत हुई, पाण्डव तब शतशृंग पर्वत पर रहते थे। पाण्डु की मौत के बाद वे कुन्ती के साथ अपने रिश्तेदारों के यहाँ आ पहुँचे। धृतराष्ट्र बड़ा भाई था पाण्डु का। इस तरह धृतराष्ट्र पांडवों का ताऊ लगता था। दुर्योधन और उसके अन्य भाई इसी धृतराष्ट्र के बेटे थे। ये सभी पांडवों के रिश्तेदार ही तो हुये।

महाभारत ग्रन्थ पढ़ो, तो पता चलता है कि दुर्योधन के मन में खोट भरा पड़ा था। पांडवों के प्रति उसके मन में ख़ास दुश्मनी थी।

कभी पाण्डु राजा था। अब धृतराष्ट्र राजा हो चुका था। पाण्डु के पुत्र होने की वजह से पांडवों का हक़ बनता था हुकूमत पर। अब कोई पापी हो, तो किसी दूसरे को उसका जायज़ हिस्सा भी कैसे दे देगा? जायज़ हिस्सा दे ही दे, तो फिर पापी ही न रहा वह। दुर्योधन पापी था। उसने पांडवों को राज्य देने का विरोध किया। पुत्र-मोह के आगे धृतराष्ट्र बे-बस हो गया। मोह ने उसके ज्ञान के नेत्र भी बन्द कर दिये थे।

पापी हमेशा साज़िशें रचता है निर्दोषों के खिलाफ़। दुर्योधन ने भी साजिशें रचीं पांडवों के खिलाफ़। लाख (लाक्ष) के बने घर में घर समेत पांडवों को उनकी माता के साथ मारने की साज़िश रच डाली।

पांडव मरे नहीं वहाँ। अब मरना-मारना तो प्रभु के हाथ है, इंसान के हाथ नहीं। पांडव बच निकले। लेकिन, दुर्योधन ख़ुश था इसी ग़लतफ़हमी में कि पाण्डव अपनी माता सहित जल मरे।

बहुत समय बीत गया। द्रौपदी के स्वंयबर का मौक़ा आया। दुर्योधन भी पहुँचा। पाण्डव भी पहुँचे। और पहुँचे श्री कृष्ण भी।

स्वंयबर में अर्जुन ने द्रौपदी को जीता।

पापी को उसके पाप ही डराते रहते हैं। अब दुर्योधन और धृतराष्ट्र को डर सताने लगा। पाण्डव ज़िन्दा हैं। और अब अकेले भी नहीं। पांचाल नरेश का साथ है । अब तो कृष्ण का भी साथ है।

राज्य का बँटवारा हो, ऐसा फ़ैसला कर दिया गया। आधा राज्य पाँडवों को दे दिया गया।

अलगाववाद कभी पक्का हल नहीं होता। मिल कर रहना ही सही होता है। अलग हो भी जाओ, तो इस से क्या दुश्मनी ख़त्म हो जायेगी? नफ़रत दिल में भरी पड़ी हो, तो अलग-अलग हो कर दुश्मनी जारी रहती है।

पांडवों ने अपने राज्य का विस्तार किया। अब खुशियाँ मनाने का वक़्त था। सब को इन खुशियों में शामिल होने के लिये बुलाया। दुर्योधन आदि को भी बुलावा भेज दिया।

वे आये। पांडवों ने उन को बहुत इज़्ज़त दी।

जो इज़्ज़त के लायक नहीं, उसको इज़्ज़त देने से कई बार ख़ुद बे-इज़्ज़त होना पड़ जाता है। जिस की ख़ुद की कोई इज़्ज़त नहीं, वह दूसरों को बे-इज़्ज़त करने में ही ख़ुशी महसूस करता है। पांडवों के बे-इज़्ज़त होने का वक़्त नजदीक आ रहा था।

दुष्ट व्यक्ति दूसरे के शोभा और इज़्ज़त बर्दाश्त नहीं कर सकता। दुर्योधन से भी पांडवों की शोभा और शान-ओ-शौकत बर्दाश्त कहाँ होती?

जब वह वापिस अपने नगर गया, तो पांडवों से राज्य छीन लेने की तरक़ीब सोचने लगा। दुष्ट कायर होता है। ओछे हथकंडे ही अपनाता है। दुर्योधन ने अपने दुष्ट साथियों के मशवरे के अनुसार युधिष्ठिर जो जुआ खेलने के लिये बुलाया।

सब जानते ही हैं कि क्या हुआ। दुष्ट और कपटी व्यक्ति जुआ भी तो कपट से ही खेलेगा। जुआ खेला गया। शकुनि ने दुर्योधन की तरफ़ से दांव फ़ेंके। कपट में माहिर था शकुनि। नतीजा यह हुया कि युधिष्ठिर जुआ हार गया।

महाभारत ग्रन्थ बहुत विस्तार से बताता है कि फिर क्या हुया…

युधिष्ठिर ने अपनी पत्नि द्रौपदी को भी जुए में दांव पर लगा डाला। और हार भी गया।

मर्दों की उस विशाल सभा में द्रौपदी के साथ जो हुया, उसका ज़िक्र करने की हिम्मत कम-अज़-कम मुझ में तो नहीं है। बस इतना ही कहूँगा कि द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की कोशिश हुयी। एक अबला सैंकड़ों मर्दों के सामने अपमानित होती रही। महाभारत ग्रन्थ में कई पन्ने इसी घटना का विवरण देते हैं। इतिहास के वे पन्ने मैं सियाही से नहीं, कभी आंसुओं से लिखूंगा।

दुष्ट नीच से नीच हरकत कर के भी लज्जित नहीं होता। दुर्योधन भी लज्जित नहीं था इस कुकर्म पर। उल्टा वह पांडवों को और अपमानित करने लगा। बेहूदा बातें बोलने लगा।

पाण्डव भीम को क्रोध आया। बहुत क्रोध आया। यहाँ तक कि अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के प्रति भी क्रोध किया।

दुर्योधन बोला, तो उसका ही एक साथी कर्ण भी कहाँ पीछे रहता? उसने भी अपमान भरे बोल कहे। भीम से बर्दाश्त नहीं हुआ।

भीम बोलना शुरू ही हुया, कि अर्जुन ने अपने बड़े भाई भीम को रोका।

मैं पांडवों की कहानी नहीं सुनाना चाहता आज। मैं तो बस वह बात सुनाना चाहता हूँ, जो अर्जुन ने उस वक़्त भीम को कही थी। अर्जुन की वह बात मैंने अपने पल्ले बाँध ली। औरों को भी कहता हूँ कि यह बात पल्ले बाँध लो।

दुष्टों द्वारा अपमानित हुये क्रोध से भरे भीम को अर्जुन ने कहा: –

न चैवोक्ता न चानुक्ता हीनत: पुरुषा गिर: ।
भारत प्रतिजल्पन्ति
सदा तूत्तमपुरुषा:॥८॥
(७२वां अध्याय, सभा पर्व, महाभारत)।

“भारत ! श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषों द्वारा कही, या न कही गयी कड़वी बातों का कभी उत्तर नहीं देते ॥८॥”

इसी लिये मैं अक्सर कहता हूँ कि अगर कोई कुत्ता मुझ पर भोंके, तो क्या मुझे भी उस पर भोंकना शुरू कर देना चाहिये? क्या उस पर भोंक कर मुझे भी बदला लेकर यह दिखा देना चाहिये कि देखो, मैं कितना बहादुर हूँ? कुत्ते पर भोंक रहा इन्सान, इन्सान ही कहाँ रहा? वह तो कुत्ता हो गया। दिखने में वह इन्सान ही है, लेकिन काम तो कुत्ते वाला ही है।

नीच लोगों की कही बातों का जवाब देते वक़्त हम भी ग़ुस्से में भर कर कुछ ग़लत बोल सकते हैं। नीच चाहता भी यही है। वह ख़ुद तो नीच है ही, औरों को भी नीच बना देना चाहता है।

क्या किसी नीच की कड़वी बात का जवाब देने के चक्कर में हमें भी नीच बन जाना चाहिये?

अर्जुन ने कहा है, “श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषों द्वारा कही, या न कही गयी कड़वी बातों का कभी उत्तर नहीं देते।”

आप को भी मैं कहता हूँ कि अर्जुन की यह बात अपने पल्ले बाँध लो।

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देश के मन्त्री कैसे होने चाहिए?

(अमृत पाल सिंघ “अमृत”)

जिस से मन्त्र्णा की जाए, वह मन्त्री कहलाता है। मन्त्र्णा का अर्थ है, सलाह-मशवरा करना। अतः जिस से सलाह ली जाए, वह मन्त्री है।

शासक अपनी सहायता के लिए कुछ मंत्रियों की नियुक्ति करता है, जो उसे विभिन्न विषयों पर सलाह देते हैं। ऐसा नही है कि कोई शासक किसी को भी अपना मन्त्री नियुक्त कर दे, तो काम चल जाएगा। मन्त्री कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो अपने विषय के तत्व को जानने वाला हो। मन्त्री कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो सदा शासक और देश के हित में लगा रहने वाला हो। उसका हर मशवरा शासक और राष्ट्र के हित में ही होना चाहिए।

किसी देश के मन्त्री कैसे होने चाहिए ?

श्री वाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण में लिखा है कि महाराज दशरथ के मन्त्री विद्वान, सलज्ज, कार्यकुशल, जितेंद्रिय, महात्मा, शस्त्रविद्या के ज्ञाता, यशस्वी, तेजस्वी, औरे क्षमाशील थे। (श्लोक ६, ७, और ८, सर्ग ७, बालकाण्ड)। किसी भी शासक के मंत्रियों में यह सभी गुणों को होना अति-आवश्यक है।

किसी भी राज्य की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि इस बात की पूरी जानकारी रखी जाए कि दुश्मन देशों की हुकूमत क्या कर रही है, क्या कर चुकी है और क्या करना चाहती है। ऐसा करने के लिए एक गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है, जो कार्यकुशल गुप्तचरों को देश-विदेश में नियुक्त करता है। एक सुयोग्य गुप्तचर विभाग तभी अच्छी तरह से कार्य कर सकता है, अगर उस विभाग की देखरेख करने वाला मन्त्री एक सुयोग्य व्यक्ति हो। एक सुयोग्य मन्त्री का चुनाव एक सुयोग्य प्रशासक या शासक ही कर सकता है।

एक सुयोग्य शासक एक निरपक्ष न्याय व्यवस्था का प्रबन्ध करता है। उसका प्रबन्ध ऐसा होना चाहिए कि यदि किसी मन्त्री, किसी और उच्च पदस्थ अधिकारी, यहाँ तक के स्वयं शासक का पुत्र भी अपराधी हो, तो उसको भी उचित दण्ड मिले।

किसी भी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी प्रजा की भलाई के लिए विद्यालय और चिकित्सालय आदि का निर्माण करवाए। समाज की भलाई के लिए जो भी उचित कार्य हो, उसे करे। ऐसे कार्य तभी हो सकेंगे, जब राज्य के कोष में पर्याप्त धन हो। किसी भी शासक के लिए आवश्यक है कि वह राजकीय कोष को भरा हुया रखे। राजकीय कोष को भरा रखने के लिए उचित आर्थिक नीतियों का पालन करना पड़ता है।

किसी भी राज्य की सुरक्षा उसकी सेना पर ही निर्भर करती है। एक सुशिक्षित और पर्याप्त रूप से शस्त्रबद्ध सेना ही किसी राष्ट्र की सुरक्षा कर सकती है। एक कुशल शासक को चाहिए कि वह इस बात का ध्यान रखे कि सेना के पास पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र हों और सेनिकों को उचित प्रशिक्षण भी प्राप्त हो। एक शक्तिशाली सेना ही अपने राष्ट्र की सुरक्षा का दायत्व संभाल सकती है। राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों की रक्षा की जानी चाहिए।

किसी राष्ट्र के पास एक शक्तिशाली सेना हो जाने से उस राष्ट्र और उस के शासक की ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है। किसी शासक के पास एक शक्तिशाली सेना हो, तो हो सकता है कि वह जो चाहे, वही करने लगे। अगर ऐसा होता है, तो यह बहुत ग़लत है। एक आदर्श शासक को चाहिए कि उस के शत्रु ने भी अगर कोई अपराध नहीं किया, तो वह उसकी हिंसा न करे।

यह बहुत आवश्यक है कि मन्त्री-गण जो भी मंत्रणा करें, उसे आवश्यकतानुसार गुप्त रखा जाए। यदि गुप्त मंत्रणा का भेद खुल जाये, उस से राष्ट्र और शासक का अहित हो सकता है। इसलिए मन्त्री ऐसा हो, जो ऐसी बातों का भेद सदा ही बनाए रखे।

यदि मन्त्री ऐसे शुभ गुणों वाले होंगे, तो उनका यश देश और विदेश में फैलेगा। स्वाभाविक है कि प्रजा भी ऐसे गुणवान मंत्रियों का पूर्ण आदर करेगी।

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(राजा दशरथ के आठ मुख्य मन्त्री थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं, धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र। राजपुरोहित वशिष्ठ जी और वामदेव जी भी मन्त्री की तरह राजा को सलाह भी दिया करते थे। इस के सिवा भी राजा दशरथ के मन्त्री थे, जिन के नाम इस प्रकार हैं, सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, मार्कन्डेय और कात्यायन। )