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गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के इस शलोक की व्याख्या इस वीडियो में की गयी है…
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गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के इस शलोक की व्याख्या इस वीडियो में की गयी है…
ਫਰੀਦਾ ਮਉਤੈ ਦਾ ਬੰਨਾ ਏਵੈ ਦਿਸੈ ਜਿਉ ਦਰੀਆਵੈ ਢਾਹਾ ॥
ਅਗੈ ਦੋਜਕੁ ਤਪਿਆ ਸੁਣੀਐ ਹੂਲ ਪਵੈ ਕਾਹਾਹਾ ॥
ਇਕਨਾ ਨੋ ਸਭ ਸੋਝੀ ਆਈ ਇਕਿ ਫਿਰਦੇ ਵੇਪਰਵਾਹਾ ॥
ਅਮਲ ਜਿ ਕੀਤਿਆ ਦੁਨੀ ਵਿਚਿ ਸੇ ਦਰਗਹ ਓਗਾਹਾ ॥੯੮॥
कुछ लोग इतने कपटी होते हैं कि उन के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं होती। उनको कितना भी उपदेश कर लो, वे कभी नहीं सुधरते। ऐसे लोग कांसे की तरह होते हैं, जिसको कितना भी धो लो, वह कालिख छोडना बन्द नहीं करता।
उजलु कैहा चिलकणा घोटिम कालड़ी मसु ॥
धोतिआ जूठि न उतरै जे सउ धोवा तिसु ॥१॥
(७२९, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब)।
(अमृत पाल ‘सिंघ’ अमृत)
दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से युधिष्ठिर को छल से जुए में हरा दिया था। युधिष्ठिर की भी बुद्धि फिर गयी और उसने अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुए के लिए दाँव पर लगा दिया। शकुनि ने पाँसा फेंका और युधिष्ठिर जुए में द्रौपदी को भी हार गया।
उसके बाद राजा धृतराष्ट्र की उस सभा में जो हुया, उसका ज़िक्र करने में ज़ुबान थरथर्राने लगती है। उस बे-हद शर्मनाक घटना को लिखते-लिखते कलम भी कांपने लगती है।
सत्ता का, सियासी ताक़त का नशा, और हर तरह के नशे से बढ़कर होता है। और जो सियासी ताक़त के क़ाबिल न हो, उसको अगर सियासी ताक़त मिल जाये, फिर तो उस से बढ़कर कोई दुराचारी और पापी नही होता। रावण तो सिर्फ एक उदाहरण है सियासी ताक़त के नशे में पागल हुये ऐसे दुराचारियों की।
दुर्योधन शायद रावण से भी बढ़कर कोई काम करने पर उतरा हुया था। सियासी ताक़त के नशे में चूर दुर्योधन ने हुक्म दिया कि पांचाली द्रौपदी को भरी सभा में पेश किया जाये।
दुर्योधन रिश्ते में द्रौपदी का देवर ही तो था। हाँ, यह बात अलग है कि उस सभा में कोई लक्ष्मण सा देवर न था। लक्ष्मण कोई हर युग में ही पैदा होते हों, ऐसा तो नहीं है न। पैदा हो भी जायें, तो लक्ष्मण कभी ऐसी निर्लज सभा में तो नहीं बैठेंगे। दशरथ की सभा हो या राम का दरबार हो, तो लक्ष्मण हो सकते हैं वहाँ। पर धृतराष्ट्र के दरबार में लक्ष्मण नहीं होते। दुर्योधन जैसों की राज-भक्ति कम-अज़-कम लक्ष्मण जैसे धर्मवीर तो नहीं कर सकते।
दुष्ट नीच को राजसत्ता का संरक्षण मिल चुका है। अब वह रिश्ते में अपनी ही भाभी को भरे दरबार में नंगा करने का हुकुम दे डालता है।
बादशाह अन्धा हो, तो कोई बात नहीं, पर अगर उसकी अक्ल पर पर्दा पड़ जाये, तो पूरे राष्ट्र की तबाही की संभावना हो जाती है। अपने रिश्तेदारों, अहलकारों, और समर्थकों को अगर वह पाप से नहीं रोकता, तो उसके वे पापी रिश्तेदार, अहलकार, और समर्थक तो तबाह होंगे ही, साथ में अपने राष्ट्र को भी तबाही की कगार पर ला खड़ा करेंगे।
पुत्र-मोह में अन्धे हुये धृतराष्ट्र को उस वक़्त यह ख़्याल तक न होगा कि उसकी अपनी हुकूमत की तबाही का बीज बोया जा रहा था। धृतराष्ट्र का बेटा और दुर्योधन का भाई दु:शासन द्रौपदी को केशों से पकड़ कर राजा की उस भरी सभा में घसीटता हुया लाया। उस वक़्त द्रौपदी सिर्फ एक ही कपड़े में थी। उसको उस राजा की सभा में ऐसे ही घसीटते हुये लाया गया, जो राजा उस का रिश्ते में ससुर भी लगता था। तथाकथित शूरवीरों की उस भरी सभा में उसके अपने ही रिश्तेदार और बज़ुर्ग थे ससुराल की ओर से। राजा की वह सभा उस के ससुरालियों की सभा ही तो थी।
सियासी ताक़त के बुरे नतीजे का चिन्ह बन चुके दुर्योधन ने हुकुम दे डाला कि द्रौपदी को भरी सभा में नंगा कर दो।
भाई गुरदास जी ने लिखा है:
अंदर सभा दुसासनै मथै वाल द्रौपती आंदी॥
दूतां नो फुरमाइआ नंगी करहु पंचाली बाँदी॥ (पउड़ी ८, वार १०)।
युधिष्ठिर ने जुआ खेला और जुए में द्रौपदी हार दी थी, तो क्या अब द्रौपदी यूर्योधन और उसके भाइयों की भाभी न रही थी? क्या अब धृतराष्ट्र उसका ससुर न रहा था? क्या देवव्रत भीष्म अब द्रौपदी के दादा-ससुर न रहा था?
युधिष्ठिर ने जुए में अपनी पत्नी को खो दिया था? या, धृतराष्ट्र ने जुआ खेला और अपनी बहू को खो दिया था?
बूढ़ा हुआ देवव्रत भीष्म उस वक़्त द्रौपदी के सवालों का जवाब देते-देते “धर्म” को ही मज़ाक का विषय बना डालता है।
महाभारत ग्रंथ में पढ़ना देवव्रत का धर्म पर उस वक़्त दिया गया व्याख्यान।
आख़िर, द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उसकी रक्षा किसी राजा धृतराष्ट्र ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर वह रक्षा कुल-पुरोहित कृपाचार्य ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उस की रक्षा शस्त्रधारी योद्धा द्रोण या अश्वथामा ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उसकी रक्षा अम्बा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण करने वाले देवव्रत भीष्म ने नहीं की।
ये क्या रक्षा करते? इनको तो यह भी नहीं पता होगा कि राष्ट्र-भक्ति और राज-भक्ति में बहुत फ़र्क होता है। यह तो राज-धर्म भूल चुके धृतराष्ट्र और पापी दुर्योधन के हुकुम मानने को ही राष्ट्रवाद समझ रहे होंगे। ख़ुद को राष्ट्रवादी होने का दिखावा करते-करते अपनी आँखों के सामने एक अबला का अपमान होते देख कर भी उसको रोकने का कोई कारगर तरीक़ा का ढूंढ पाये।
राष्ट्र के हित की बात तो यही होती कि दुष्ट राजा और उसके अहलकारों को सियासी ताक़त से महरूम कर दिया जाता। बाद में भी तो युद्ध के मैदान में दुर्योधन और उसकी दुष्ट चौकड़ी को मारना ही पड़ा।
लेकिन, एक दुर्योधन मर गया, तो इस का मतलब नहीं कि दुर्योधन फिर कभी पैदा नहीं हुया। अपने आस-पास देखोगे, तो पाओगे कि दुर्योधन अभी भी भेस बदल कर यहाँ-तहां घूमता रहता है। सियासी ताक़त के नशे में झूमते कई दुर्योधन कभी-कभी अख़बारों की सुर्खियां भी बन जाते हैं, हालांकि ज़्यादातर उनके पापों की चर्चा होती ही नहीं है।
दिल्ली में “निर्भया” बलात्कार काण्ड करने वाले आज के दौर के दुर्योधन ही तो हैं। वह बेचारी भी तो किसी की बेटी थी। उन नीच बलात्कारियों के साथ हमदर्दी रखने वाले कौन हैं? वे सब दुर्योधन के भाई आधुनिक दु:शासन और दुर्योधन के दोस्त आधुनिक कर्ण ही तो हैं।
छोटे-मोटे दुर्योधन तो सोश्ल-मीडिया पर भी बहुत मिल जाते हैं। किसी भी लड़की की फोटो किसी सोश्ल-मीडिया वेबसाइट पर डाली और बदनाम करना शुरू। द्रौपदी भी किसी की बेटी, किसी की बहन, किसी की पत्नी, और किसी की माँ थी। आज का दुर्योधन इंटरनेट पर जिस लड़की को बे-वजह बदनाम करता है, वह भी किसी की बेटी और किसी की बहन होती है। अक्ल के अन्धे ऐसे बहुत दुर्योधन तो इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पाते कि अपनी असल पहचान ही बता सकें। कभी वह किसी लड़की की प्रोफ़ाइल के पीछे छिपे हुये मिलते हैं, तो कभी राष्ट्रवाद या धर्म का मुखौटा पहने पाये जाते हैं। दिखावे के धर्म-कर्म के काम दुर्योधन क्या नहीं करता था?
आधुनिक दौर में तो ऐसे दुर्योधन भी बैठे हैं, जो मर चुकी औरतों के चरित्र पर भी कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। जब ऐसे दुष्टों के मुखौटे उतरेंगे, तो उनके असली चेहरे बहुत ही भद्दे निकलेंगे।
आधुनिक दुर्योधन और उनके दु:शासन और कर्ण यह भी जान लें कि दुर्योधन और उसकी दुष्ट मंडली का क्या हुआ? गुरु ग्रंथ साहिब जी में भक्त नामदेव जी का शब्द है: –
मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥
(६९३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
युद्ध के मैदान में दुर्योधन का मान तोड़ ही दिया गया था। भक्त कबीर साहिब का फुरमान है:
दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥
(११६३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਪੰਜਾਬੀ ਲੇਖ ‘ਨਾਨਕ ਇਹ ਬਿਧਿ ਹਰਿ ਭਜਉ‘ ਅਸੀਂ ਪੀ. ਡੀ. ਐੱਫ਼. ਫ਼ਾਈਲ (PDF) ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਪੇਸ਼ ਕਰ ਰਹੇ ਹਾਂ । ਇਹ ਲੇਖ ਪੜ੍ਹਨ ਜਾਂ ਫ਼ਾਈਲ ਡਾਊਨਲੋਡ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਰਪਾ ਕਰ ਕੇ ਇਸ ਲਿੰਕ ਉੱਤੇ ਜਾਉ ਜੀ: – ਨਾਨਕ ਇਹ ਬਿਧਿ ਹਰਿ ਭਜਉ.
इस लेख का हिन्दी रूप भी उपलब्ध है: – नानक इह बिधि हरि भजउ…
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(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
किसी जीव मेँ अवगुण भी हो सकते हैं और सद्गुण भी। कुत्ता भी जीव है। कुत्ते मेँ अवगुण भी हैं और गुण भी हैं।
कुत्ते मेँ एक अच्छा गुण है, उसका अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होना। मालिक उसको अच्छा भोजन दे या बुरा, कुत्ता अपने मालिक का साथ नहीं छोड़ता। मालिक उनकी पिटाई करे, तो भी कुत्ता अपने मालिक का दर नहीं छोड़ता, ऐसा बहुत प्रसिद्ध है।
खोजी विद्वानों का कहना है कि कुत्ते का साथ इन्सान की शारीरक और मानसिक सेहत के लिये बहुत अच्छा है। जिन लोगों ने कुत्ते पाले हुये हैं, उनकी सेहत और लोगों के मुक़ाबले मेँ बढ़िया रहती है और दिल भी ख़ुश रहता है। जो लोग कुत्ता पालते हैं, उनकी बढ़िया सेहत की एक वजह यह भी है कि कुत्ते की देखभाल करते-करते उनकी अच्छी कसरत हो जाती है।
कुत्ता एक अच्छे दोस्त की तरह अपने मालिक के दु:ख-सुख को महसूस करने की योग्यता रखता है। इस बारे मेँ कई कहानियाँ हमें सुनने को मिल जाती हैं। वह अपाहिज लोग, जिन्होने कुत्ता रखा होता है, अजनबी लोगों से मिलते वक़्त ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। डिप्रेशन आदि मानसिक समस्याओं से परेशान लोगों के लिये कुत्ता बहुत बढ़िया मददगार साबित होता है।
कुत्ता हज़ारों सालों से इन्सानों के साथ चला आ रहा है। इन्सान की तवारीख़ मेँ कुत्ते का ज़िक्र शुरू से ही मिलता है। दुनिया भर के साहित्य मेँ कुत्तों का ज़िक्र है। बुल्ले शाह ने भी कुत्ते का ज़िक्र करते हुये कहा था: –
बुल्लिया ! रातीं जागें, दिनें पीर सदावें,
रातीं जागण कुत्ते,
तैं थीं उत्ते।
गुरुवाणी मेँ बहुत जगहों पर वाणीकारों ने ख़ुद को कुत्ता (कूकर) कहा है, जैसे: –
हम कूकर तेरै दरबारि ॥ (९६९, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
और,
कबीर कूकरू राम कउ (१३६८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
कुत्ते में कुछ अवगुण भी हैं और गुरुवाणी ने इन अवगुणों की भी बात की है, पर जो भी हो, कुत्तों के अवगुणों से उनके गुण ज़्यादा हैं।
एक गुण कुत्ते मेँ ऐसा है, जो उसके अवगुणों को छिपा लेता है। यह गुण है वफ़ादारी का। श्री सद्गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने भी कुत्ते (श्वान/सुआन) के अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होने के गुण का ज़िक्र करते हुये एक-मन और एक-चित हो कर हरि की भक्ति करने की बात कही है: –
सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
श्री सद्गुरु कहते हैं कि जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता, हे नानक ! इसी तरह ही एक-मन हो कर, एक-चित हो कर हरि का भजन किया जाना चाहिये।
‘सुआमी को ग्रिहु’, स्वामी का गृह, मालिक का घर। सुआन कुत्ते को कहते हैं। ‘तजत नही’, त्याग नहीं देता, छोड़ता नहीं। अर्थात, जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता।
‘नानक’, अपने-आप को सम्बोधित करते हुये सद्गुरु कहते हैं, ‘हे नानक !’, ‘इह बिधि’, इस विधि से, इस तरीक़े से। ‘हरि भजउ’, हरि का भजन करो, प्रभु की बन्दगी/सुमिरन करो। ‘इक मनि’, एक-मन हो कर, मन की ऐसी अवस्था बना कर, जब कोई और विचार मन मेँ न रहे। ‘इक चिति’, एक-चित हो कर। जब चित की अवस्था ऐसी हो जाए कि चित प्रभु का ही रूप हो जाये।
‘इह बिधि’। कौन-सी विधि? श्लोक की पहली पंक्ति मेँ कुत्ते की वफ़ादारी का ज़िक्र किया। वफ़ादारी की उसी विधि का प्रयोग करो प्रभु के लिये भी। कोई भी स्थिति हो, कुत्ता अपने मालिक का घर नहीं छोड़ता। भक्त भी वफ़ादारी की उसी विधि का प्रयोग करे। मालिक प्रभु जिस तरह रखे, उसकी रज़ा मेँ राज़ी रहना।
श्री सद्गुरु रामदास जी महाराज ने कितना सुन्दर कहा है:-
जे सुखु देहि त तुझहि अराधी दुखि भी तुझै धिआई ॥२॥
जे भुख देहि त इत ही राजा दुख विचि सूख मनाई ॥३॥
तनु मनु काटि काटि सभु अरपी विचि अगनी आपु जलाई ॥४॥
पखा फेरी पाणी ढोवा जो देवहि सो खाई ॥५॥
नानकु गरीबु ढहि पइआ दुआरै हरि मेलि लैहु वडिआई ॥६॥
अखी काढि धरी चरणा तलि सभ धरती फिरि मत पाई ॥७॥
जे पासि बहालहि ता तुझहि अराधी जे मारि कढहि भी धिआई ॥८॥
जे लोकु सलाहे ता तेरी उपमा जे निंदै त छोडि न जाई ॥९॥
(७५७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
श्री सद्गुरु रामदास जी महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! अगर तुम मुझे सुख दो, तो भी मैं तेरा ही आराधन करता रहूँ। अगर दु:खों मेँ हूँ, तो भी तेरी ही आराधना करता रहूँ।२। अगर तुम मुझे भूखे रखो, तो इस (भूख) मेँ भी मैं भर-पेट रहूँ। (तेरे दिये) दु:खों मेँ सुख ही भोगता रहूँ ।३। अपना तन और मन काट-काट के सब तेरे लिये अर्पण कर दूँ। आग मेँ खुद को जला दूँ।४। (तेरे लिये) पंखा फेरूँ। (तेरे लिये) पानी लाऊं। (हे प्रभु!) जो तुम दो, वह ही मैं खा लूँ।५। (महाराज कहते हैं कि मैं) ग़रीब नानक तुम्हारे दर पर आ गिरा हूँ। हे प्रभु! मुझे अपने मेँ मिला लो। यह ही तुम्हारा बढ़पन है, शोभा है।६। (अपनी) आखें निकाल कर (प्रभु) के चरणों के नीचे रख दूँ। सारी धरती पर (भी अगर मुझे तेरी तलाश मेँ घूमना पड़े, तो मैं) घूमता रहूँ, (यह सोच कर कि) शायद मुझे प्रभु मिल जाये, शायद परमात्मा से मेरा मेल हो जाये।७। अगर तुम मुझे अपने पास बैठा लो, तो मैं तेरी ही आराधना करूँ। अगर तुम मार-पीट कर के (अपने दर से) निकाल दो, तो भी मैं तेरी ही आराधना करता रहूँ।८। अगर दुनिया मेरी तारीफ़ करे, तो भी मैं तेरी ही गुणगान करता रहूँ। अगर समाज मेरी निन्दा करे, तो भी (मैं तेरी भक्ति) छोड़ कर न जाऊँ।९।
यह है वफ़ादारी प्रभु के प्रति। प्रभु जैसी भी अवस्था मेँ रखे, भक्त उसमें ही राज़ी है, ख़ुश है।
ऐसी ही वफ़ादारी की बात श्री सद्गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने की है, जब उन्होने कहा: –
सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
वफ़ादारी दुर्लभ हो गयी है आजकल। न परिवार के लिये वफ़ादारी रही, न दोस्तों के लिये। न समाज के लिये वफ़ादारी रही, न धर्म के लिये।
परिवार के लिये वफ़ादारी क्या है?
जिस परिवार ने, या परिवार के जिन सदस्यों ने पाल-पोस के बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार करने लायक बनाया, उस परिवार या परिवार के सदस्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाना ही परिवार के प्रति वफ़ादारी है।
परंतु, ज़्यादातर होता क्या है?
जिस परिवार ने, या जिन पारिवारिक सदस्यों ने पाल-पोस के बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार करने लायक बनाया, उस परिवार या परिवार के सदस्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल कर लोभी इन्सान अपने ही सुखों के लिये यतनशील हो जाता है। शादी हो गयी, तो इन्सान अपने माँ-बाप आदि के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल कर अपनी पत्नी को लेकर माँ-बाप से अलग हो जाता है।
जब पैदा हुये, तो भगवान को बिसार दिया, जब शादी हुयी, तो माँ-बाप को भुला दिया।
भाई गुरदास जी ने इस बारे मेँ ऐसा लिखा है: –
कामणि कामणिआरीऐ कीतो कामणु कंत पिआरे ॥
जम्मे सांई विसारिआ वीवाहिआं माँ पिअ विसारे ॥
सुखां सुखि वीवाहिआ सउणु संजोगु विचारि विचारे ॥
पुत नूहै दा मेलु वेखि अंग ना माथनि माँ पिउ वारे ॥
नून्ह नित मंत कुमंत देइ माँ पिउ छडि वडे हतिआरे ॥
वख होवै पुतु रंनि लै माँ पिउ दे उपकारु विसारे ॥
लोकाचारि होए वडे कुचारे ॥१२॥
(वार ३७)।
दोस्तों से वफ़ादारी अब बस किताबों मेँ ही लिखी रह गयी है। शायर बशीर बदर का एक शेयर है: –
दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें,
किस ज़माने के आदमी तुम हो?
आज के वक़्त मेँ सियासत मेँ वफ़ा की उम्मीद करना ही बेवकूफी माना जायेगा। सियासत आज समाज की सेवा करने के लिये नहीं, बल्कि अपना घर भरने के लिये ही समझी जाती है। सियासत की थोड़ी-सी जानकारी रखने वाले जानते हैं कि आज की सियासत मेँ वफ़ादारी की कोई गुंजायश ही नहीं रही। अपनी सियासी जमायत मेँ कोई रुतबा न मिला, तो पार्टी छोड़ दी। इलैक्शन लड़ने के लिये टिकेट नहीं मिली, तो पार्टी छोड़ दी। दूसरी पार्टी की तरफ से अच्छे रुतबे की पेशकश हुयी, तो पार्टी छोड़ दी। एक बार पार्टी छोड़ देने के बाद उसी पार्टी की तरफ से कोई लालच दिया गया, तो वापिस उसी पार्टी मेँ जाने से भी कोई संकोच नहीं। वफ़ादारी नहीं, बल्कि ज़ाती फ़ायदे ही देखे जाते हैं आज की सियासत मेँ।
वफ़ादार की कमी अब मज़हब की दुनिया मेँ भी ख़ूब देखने को मिलती है। कुछ सहूलतों या पैसों के लालच मेँ कई लोग अपना मज़हब तक तब्दील करने मेँ झिझक महसूस नहीं करते। सियासी फ़ायदे के लिये भी मज़हब बदलने मेँ कुछ लोग देर नहीं करते। यह कहना ग़लत न होगा कि बहुत बार मज़हब को सियासी ताक़त हासिल करने के लिये एक औज़ार से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता। बहुत जगहों पर मज़हबी रहनुमा अपने सियासी आक़ाओं के हुकुम मानने वाले ही होते हैं।
जिस समाज मेँ न परिवार के प्रति वफ़ादारी है, न दोस्तों के प्रति; न समाज के प्रति वफ़ादार है, न मज़हब के प्रति; वहाँ प्रभु के प्रति वफ़ादारी रखने वाले कितने लोग होंगे? जिस समाज मेँ वफ़ादार इन्सान कम ही मिलते हों, वहाँ कुत्तों की वफ़ादारी की कहानियाँ सुनना बहुत अच्छा लगता है। कुत्ते की वफ़ादारी से अगर इन्सान कुछ सीख ले ले, तो बहुत अच्छी बात होगी।
जैसे कुत्ता अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होता है और उसको कभी नहीं छोड़ता, उसी तरह हमें भी अपने प्रभु मालिक प्रति वफ़ादार रह कर उसकी भक्ति मेँ लगना चाहिये। संसारी वस्तुएं, धन-दौलत, सियासी या सामाजिक पदों के लालच मेँ लग कर प्रभु-भक्ति का त्याग नहीं कर देना चाहिये।
जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता, उसी तरह ही एक-मन हो कर, एक-चित हो कर हरि का भजन किया जाना चाहिये।
सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
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नानक क़हत जगत सभ मिथिआ जिउ सुपना रैनाई॥ (सारंग महला 9, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
जगत मिथ्या है, नाशमान है। हक़ीक़त में इस का अपना अस्तित्व उसी प्रकार का ही है, जैसे किसी सपने का अस्तित्व होता है। रात को आए सपने के अस्तित्व के बारे में क्या कहा जाए? क्या उस का अस्तित्व है? क्या उस का अस्तित्व नहीं है? सपने का अस्तित्व हो कर भी वह अस्तित्व रहित है। सपना मिथ्या है। सपने में घटित घटना असलियत में घटित हुई ही नहीं, परंतु मन ने सपने में घटित घटना को असली मान लिया। इसीलिए, भयानक सपने से यह डर जाता है, दुख का सपना देख के दुखी हो जाता है और खुशी का सपना देख कर खुश हो जाता है। न कोई भयानक घटना घटी, न कोई दुखभरी घटना हुई, न ही खुशी की कोई बात हुई। केवल सपना आया, पर मन डर गया, दुखी हो गया या खुश हो गया। कुछ भी घटित नहीं हुया, पर मन ने डर, दुख या सुख को महसूस कर लिया।
ਨਾਨਕ ਕਹਤ ਜਗਤ ਸਭ ਮਿਥਿਆ ਜਿਉ ਸੁਪਨਾ ਰੈਨਾਈ ॥੨॥੧॥
(ਸਾਰੰਗ ਮਹਲਾ ੯, ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ).
ਜਗਤ ਮਿਥਿਆ ਹੈ, ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਹੈ । ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਇਸ ਦੀ ਆਪਣੀ ਹੋਂਦ ਉਸੇ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੀ ਹੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਕਿਸੇ ‘ਸੁਪਨੇ’ ਦੀ ਹੋਂਦ ਹੁੰਦੀ ਹੈ । ਰਾਤ ਨੂੰ ਆਏ ਸੁਪਨੇ ਦੀ ਹੋਂਦ ਬਾਰੇ ਕੀ ਆਖਿਆ ਜਾਏ? ਕੀ ਉਸ ਦੀ ਹੋਂਦ ਹੈ? ਕੀ ਉਸ ਦੀ ਹੋਂਦ ਨਹੀਂ ਹੈ? ਸੁਪਨੇ ਦੀ ਹੋਂਦ ਹੋ ਕੇ ਵੀ ਸੁਪਨਾ ਅਣਹੋਇਆ ਹੈ । ਸੁਪਨਾ ਮਿਥਿਆ ਹੈ । ਸੁਪਨੇ ਵਿੱਚ ਵਾਪਰੀ ਘਟਨਾ ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਵਾਪਰੀ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਪਰ ‘ਮਨ’ ਨੇ ਸੁਪਨੇ ਵਿੱਚ ਵਾਪਰੀ ਘਟਨਾ ਨੂੰ ਅਸਲ ਜਾਣ ਲਿਆ । ਇਸੇ ਕਾਰਣ, ਭਿਆਨਕ ਸੁਪਨੇ ਤੋਂ ਇਹ ਡਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਦੁੱਖ ਦਾ ਸੁਪਨਾ ਦੇਖ ਕੇ ਦੁੱਖੀ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤੇ ਖ਼ੁਸ਼ੀ ਦਾ ਸੁਪਨਾ ਦੇਖ ਕੇ ਖ਼ੁਸ਼ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਨਾ ਕੋਈ ਭਿਆਨਕ ਘਟਨਾ ਵਾਪਰੀ, ਨਾ ਕੋਈ ਦੁੱਖ-ਭਰਪੂਰ ਘਟਨਾ ਘਟੀ, ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਖ਼ੂਸ਼ੀ ਦੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਹੋਈ । ਕੇਵਲ ਸੁਪਨਾ ਆਇਆ, ਪਰ ਮਨ ਡਰ ਗਿਆ, ਦੁੱਖੀ ਹੋ ਗਿਆ ਜਾਂ ਖ਼ੁਸ਼ ਹੋ ਗਿਆ । ਕੁੱਝ ਵੀ ਵਾਪਰਿਆ ਨਹੀਂ, ਪਰ ਮਨ ਨੇ ਡਰ, ਦੁੱਖ ਜਾਂ ਸੁੱਖ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰ ਲਿਆ ।
ਜੇ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿੱਚ, ਮਾਂ-ਬਾਪ/ਭੈਣ/ਭਰਾ/ਧੀ/ਪੁੱਤਰ ਨਾਲ ਰਹਿਣਾ ਢਹਿੰਦੀ ਕਲਾ ਨਹੀਂ, ਤਾਂ ਕਿਸੇ ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣਾ ਵੀ ਢਹਿੰਦੀ ਕਲਾ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ । ਕਿਸੇ ਲਈ ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ ਵੀ ਉਸਦਾ ਆਪਣਾ ਘਰ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਊਧਮ ਸਿੰਘ ਵੀ ਯਤੀਮਖ਼ਾਨੇ ਵਿੱਚ ਹੀ ਪਲਿਆ ਸੀ, ਪਰ ਇਹ ਕਹਿਣਾ ਔਖਾ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਚੜ੍ਹਦੀ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਸੀ । ਜੇ ਪੂਰੀ ਧਰਤੀ ਹੀ ਰਹਿਣ ਯੋਗ ਹੈ, ਤਾਂ ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ ਤੇ ਬਿਰਧ ਘਰ ਵੀ ਇਸੇ ਧਰਤੀ ਉੱਤੇ ਹੀ ਹਨ । ਜੇ ਕੋਈ ਆਪਣੇ ਘਰ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਕੀ ਉਸ ਨੂੰ ਪਰਮਪਿਤਾ ਦਾ ਆਸਰਾ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ? ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਜੇ ਕੋਈ ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਸ ਦਾ ਇਹ ਮਤਲਬ ਕਿਵੇਂ ਲਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਨੂੰ ਪਰਮਪਿਤਾ ਦਾ ਆਸਰਾ ਨਹੀਂ?
ਜਿੱਥੋਂ ਤਕ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਨਾਥ ਆਖਣ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ, ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਨੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂਬਾਣੀ ਵਿੱਚ ਅਨੇਕ ਜਗ੍ਹਾ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਨਾਥ ਆਖਿਆ ਹੈ । ਉਦਾਹਰਣ ਵਜੋਂ: –
(1) “ਨਾਹਿਨ ਦਰਬੁ ਨ ਜੋਬਨ ਮਾਤੀ ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਕੀ ਕਰਹੁ ਸਮਾਈ ॥੨॥ ”
(2) “ਦਇਆ ਮਇਆ ਕਰਿ ਪ੍ਰਾਨਪਤਿ ਮੋਰੇ ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਸਰਣਿ ਪ੍ਰਭ ਤੋਰੀ ॥”
(3) “ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਗਰੀਬ ਨਿਮਾਨੀ ॥ ”
(4) “ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਨਿਰਗੁਨ ਗੁਣੁ ਨਾਹੀ ਮੈ ਆਹਿਓ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਰਾ ਧੋਰਾ ॥੧॥ ”
(5) “ਹਮ ਅਨਾਥ ਨਾਥ ਹਰਿ ਸਰਣੀ ਅਪੁਨੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇਂਹ ॥ ਚਰਣ ਕਮਲ ਨਾਨਕੁ ਆਰਾਧੈ ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਆਨ ਨ ਕੇਂਹ ॥੨॥੬॥੧੦॥ ”
(6) “ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਤੁਮਰੀ ਸਰਣਾਈ ॥ ”
(7) “ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਪ੍ਰਿਅ ਨਾਥ ਜਿਉ ਜਾਨਹੁ ਤਿਉ ਰਖਹੁ ॥ ”
(8) “ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰੀ ਸਰਣ ॥ ”
ਭਾਈ ਗੁਰਦਾਸ ਜੀ ਨੇ ਵੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਨਾਥ ਆਖਦੇ ਹੋਏ ਬੜਾ ਖ਼ੂਬਸੂਰਤ ਲਿਖਿਆ ਹੈ : ਤੋ ਸੋ ਨ ਨਾਥੁ, ਅਨਾਥ ਨ ਮੋ ਸਰਿ… (ਕਬਿੱਤ ੫੨੮).
ਅਨਾਥ ਹੋਣਾ, ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣਾ, ਬਿਰਧ ਘਰ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣਾ ਕੋਈ ਢਹਿੰਦੀ ਕਲਾ ਦੀ ਨਿਸ਼ਾਨੀ ਨਹੀਂ। ਇਹ ਤਾਂ ਸਗੋਂ ਚੜ੍ਹਦੀ ਕਲਾ ਦਾ ਉੱਤਮ ਨਮੂਨਾ ਹੈ ਕਿ ਕੋਈ ਦੁਨੀਆਵੀ ਰਿਸ਼ਤਾ ਸਹਾਈ ਨਾ ਹੋਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਉਹ ਜੀਅ ਰਹੇ ਹਨ ਤੇ ਹੋਰਨਾਂ ਅਨਾਥਾਂ ਜਾਂ ਬਿਰਧਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਸਾਥ ਦੇ ਰਹੇ ਹਨ । ਕਦੇ ਕਿਸੇ ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ ਜਾਂ ਬਿਰਧ ਘਰ ਵਿੱਚ ਜਾ ਕੇ ਦੇਖਿਆ ਜਾਏ, ਤਾਂ ਹੀ ਇਹ ਗੱਲ ਸਮਝ ਆ ਸਕਦੀ ਹੈ ।
ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ, ਜੇ ਕੋਈ ਆਪਣੇ ਸਮਝੇ ਜਾ ਰਹੇ ਘਰ ਵਿੱਚ, ਜਾਂ ਆਪਣੇ ਸਮਝੇ ਜਾ ਰਹੇ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਸ ਦਾ ਇਹ ਭਾਵ ਨਹੀਂ ਲਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਕਿ ਉਹ ਜ਼ਰੂਰ ਹੀ ਚੜ੍ਹਦੀ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਹੋਏਗਾ । ਐਸੀ ਗੱਲ ਹੁੰਦੀ, ਤਾਂ ਆਪਣੇ ਸਮਝੇ ਜਾ ਰਹੇ ਘਰਾਂ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਲੋਕ ਕਦੇ ਵੀ ਆਤਮਹੱਤਿਆ ਨਾ ਕਰਦੇ ਫਿਰਦੇ ।
ਅਸਲ ਸਮੱਸਿਆ ਤਾਂ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਮਨਮੁੱਖ ਦੁਨੀਆਵੀ ਆਸਰਿਆਂ ਸਦਕਾ ਹੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਨਾਥ ਨਹੀਂ ਸਮਝ ਰਿਹਾ । ਜਦੋਂ ਉਹ ਸਮਝ ਗਿਆ ਕਿ ਉਹ ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਅਨਾਥ ਹੈ, ਉਦੋਂ ਹੀ ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸ਼ਰਣ ਵਿੱਚ ਆਉਣ ਦੀ ਸੋਚ ਸਕਦਾ ਹੈ: –
ਮੋਹਿ ਅਨਾਥ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰੀ ਸਰਣ ॥
– ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਪਾਲ ਸਿੰਘ ‘ਅੰਮ੍ਰਿਤ’
हर वह पल, जो तेरी याद के बिना बीता, गुनाह बन गया। जैसे-जैसे तुम्हारे नज़दीक होता जा रहा हूँ, वैसे-वैसे अपने किये गुनाहों का अहसास भी तेज़ होता जा रहा है।
सोरठि महला ५ ॥ हम मैले तुम ऊजल करते हम निरगुन तू दाता ॥ हम मूरख तुम चतुर सिआणे तू सरब कला का गिआता ॥१॥ माधो हम ऐसे तू ऐसा ॥ हम पापी तुम पाप खंडन नीको ठाकुर देसा ॥ रहाउ ॥ तुम सभ साजे साजि निवाजे जीउ पिंडु दे प्राना ॥ निरगुनीआरे गुनु नही कोई तुम दानु देहु मिहरवाना ॥२॥ तुम करहु भला हम भलो न जानह तुम सदा सदा दइआला ॥ तुम सुखदाई पुरख बिधाते तुम राखहु अपुने बाला ॥३॥ तुम निधान अटल सुलितान जीअ जंत सभि जाचै ॥ कहु नानक हम इहै हवाला राखु संतन कै पाछै ॥४॥६॥१७॥ (६१३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’