सनातन जैन परम्परा में गुरुपूर्णिमा

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

कथा है कि सौधर्म इन्द्र द्वारा विधिवत् पूजा और धनपति कुबेर द्वारा समवसरण की रचना के बावजूद श्री महावीर भगवान की दिव्य ध्वनि ६६ दिन तक नहीं खिरी।

समवसरण

समवसरण

आम भाषा में कहें, तो महावीर भगवान के रूप में गुरु तो मौजूद हैं, परन्तु गणधर, अर्थात, कोई ऐसा विशेष शिष्य उपलब्ध नहीं है, जो उनके ब्रह्मोपदेश को ग्रहण कर के आगे और जिज्ञासुओं को भी वही उपदेश कर सकने की योग्यता रखने वाला हो।

बहुत गम्भीर बात है। गुरु उपलब्ध है। देव वहाँ मौजूद हैं। मानव वहाँ मौजूद हैं। अन्यन्य जीव वहाँ मौजूद हैं। परन्तु, कोई ऐसा विशेष शिष्य वहाँ मौजूद नहीं है।

सब के जीवन में गुरु आते हैं। हर किसी के एक से ज़्यादा गुरु होते हैं। कोई आपको पढ़ना सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको गणित सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको साइंस पढ़ाता है, तो वह आपका गुरु है। आपको कोई भी विषय पढ़ा दे, वह आपका गुरु है।

माँ ने आपको बहुत कुछ सिखाया। चलना सिखाया। खाना, पीना, बोलना सिखाया। माँ भी गुरु है। जीवों के पहले गुरु के तौर पर माँ का ही ज़िक्र होता है।

जो आपको धर्म पढ़ा दे, धर्मग्रंथ पढ़ा दे, वह भी आपका गुरु है। इस गुरु का विशेष स्थान है। इसकी ख़ास अहमियत है।

पर, इन सब गुरुओं से भी ऊपर एक गुरु है। यह वह गुरु है, जो आपको मोक्ष मार्ग दिखा दे; जो आपको आत्मानुभव करा दे; जो आपको ब्रह्मज्ञान करा दे। ऐसे गुरु को सद्गुरु कहा जाता है।

सद्गुरु के अनेक शिष्य हो सकते हैं। हज़ारों, लाखों, करोड़ों शिष्य हो सकते हैं। पर हर शिष्य इतना सुयोग्य नहीं होता कि सद्गुरु के अत्यन्त रहस्यमय उपदेश को ग्रहण कर सके।

एकोपि वङ्कामणिरि शिष्योलं गुरूजनस्य किं बहुभि:।
काचशकलैरिवान्यैरू दण्डै: पात्रता शून्यै :।।

गुरूजन के लिये हीरे जैसा एक भी शिष्य पर्याप्त है। कांच के टुकड़ों की भांति पात्रता-शून्य ढेर सारे उद्दण्ड शिष्यों से क्या प्रयोजन है।

काँच के टुकड़ों का ढेर क्या करना? चाहे एक ही सुयोग्य शिष्य हो, पर जो हो, तो हीरे जैसा निर्मोल्क हो। हीरा तो एक भी बहुत है।

समवसरण में सद्गुरु बैठे हैं। उनको सुनने के लिये देव आदि मौजूद हैं। सौधर्म इन्द्र खड़ा है। कुबेर खड़ा है। पर सद्गुरु हैं कि मौन हैं।

गोतम गोत्र वाले, सकल वेद वेदांग के ज्ञाता, महापण्डित, इन्द्रभूति जी अपने भाइयों और 500 ब्राह्मण शिष्यों के साथ समवसरण में पहुँचते हैं। सामने देखते हैं। पवित्रात्मा महावीर महाभाग बैठे हैं।

सद्गुरु जब बोलेंगे, तब बोलेंगे। जब उपदेश देंगे, तब देंगे। अभी तो उनका दर्शन करने मात्र से इन्द्रभूति जी को कुछ ऐसी अनुभूति हो गई है, जिस को कथन नहीं किया जा सकता।

वह आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन था।

ऐसा शिष्य भी दुर्लभ है। सौधर्म इन्द्र भी वहाँ इन्द्रभूति का पूजन करते हैं। अहो भाग्य! सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य का पूजन तो देव भी करते हैं। इन्द्र भी करते हैं।

इन्द्रभूति अपने दोनों भाइयों, वायुभूति और अग्निभूति, और अपने 500 शिष्यों समेत महावीर भगवान से दीक्षित हो गये।

इन्द्रभूति अब महावीर भगवान की संगति से इन्द्रभूति नहीं रहे। वह महावीर जी के प्रथम गणधर हो गये। इतिहास में उनको गौतम गणधर के नाम से जाना जाता है। उनके दोनों भाइयों सहित ग्यारह गणधर हुए।

श्री गौतम गणधरश्री गौतम गणधर

इतिहास कहता है कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन इन्द्रभूति को उनके गुरु की प्राप्ति हुई और वे गौतम गणधर हो गये। इस लिये जैन परम्परा में यह दिन ‘गुरु पूर्णिमा’ के तौर पर विख्यात हुआ।

इससे अगले दिन, यानि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को प्रभात में पहली बार श्री महावीर जी की गम्भीर वाणी खिरी।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’