गर्व या शर्मिंदगी? । हल्की-फुल्की बातें

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

एक सवाल अक्सर मेरे ज़ेहन में आता है कि जिनको अपने बुज़ुर्गों के अच्छे काम पर फ़ख़्र होता है, गर्व होता है, क्या उनको अपने बुज़ुर्गों के या अपने ही समाज के आजकल के लोगों के बुरे काम पर शर्मिंदगी भी होती है कि नहीं?

एक बार कुछ भाइयों से बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि उन्हें फ़ख़्र है कि उन्होंने यह किया, उन्होंने वह किया।

मैंने कहा, “वे जो काम हुए, वे आप लोगों ने नहीं किये, बल्कि हमारे बुज़ुर्गों ने, हमारे पूर्वजों ने किये थे। आपने क्या किया, यह बताईये, सिवाए इसके कि गुरद्वारों के अन्दर तलवारें चलाईं और एक-दूसरे की पगड़ियां उतारीं? आप जो आज कर रहे हैं, उस पर शर्मिन्दगी होती है कि नहीं?”

1947 के बंटवारे में सैकड़ों हिन्दू और सिख औरतों ने सामूहिक आत्महत्याएं की। अभी तक फ़ख़्र करते हैं लोग। मैं जब वह सब सोचता हूँ, तो दर्द से भर जाता हूँ। फ़ख़्र कैसा, भाई? बहुत ग़म की बात है कि हम उनकी हिफ़ाज़त नहीं कर पाये।

देवी दुर्गा और माई भागो की वीरता की गाथाओं पर फ़ख़्र करने वाले लोग अपनी उन हज़ारों निरापराध असहाय औरतों पर फ़ख़्र करते हैं, जिन्होंने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये सामुहिक ख़ुदकुशी कर ली थी, ताकि वे गुण्डों के हाथ न आ जाएं। वे इस बात पर दुःख या शर्मिंदगी क्यों नहीं महसूस करते कि इन औरतों की हिफ़ाज़त नहीं की जा सकी?

अपने अन्दर के खोखलेपन को गर्व की घास-फूस से, फ़ख़्र की चादर से ढांकने की कोशिश करते हैं बहुत लोग।