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(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
एक आम इंसान को, एक संसारी व्यक्ति को बहुत-सी संसारी चीज़ें पसन्द होती हैं। वह संसार के जिन सुखों को भोगना चाहता है, जिन सुखों को वह भोगता है, उनको अपने पाँच ज्ञान इंद्रियों के ज़रिये भोगता है। और यह जितनी भी वस्तुएँ हैं, जिनको वह भोगता है, उनको पाँच समूहों में हम रख सकते हैं। ये पाँच समूह ही पाँच विषय हैं। ये पाँच विषय हैं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध।
जैसे, किसी को कुछ सुनना अच्छा लगता है। हो सकता है उसको किसी ख़ास तरह का संगीत पसन्द हो। हो सकता है, उस को किसी ख़ास गायक की आवाज़ पसन्द हो। वह बार-बार अपनी पसन्द का संगीत सुनना चाहेगा। वह बार-बार अपने पसन्द के गायक को सुनना चाहेगा। यह जो सुनना है, यह विषय है ‘शब्द’। किसी को किसी भी प्रकार की कोई चीज़ सुनने में अच्छी लगे, चाहे वह संगीत हो, चाहे वह किसी व्यक्ति की आवाज़ हो, वह इस एक विषय में आ जाती है। वह विषय है, ‘शब्द’। ‘शब्द’ का अर्थ ही है आवाज़। इंग्लिश में sound ।
दूसरा विषय है, ‘स्पर्श’। कुछ छूना अच्छा लगे। किसी को क्या छूना अच्छा लगता है, किसी को क्या छूना अच्छा लगता है। माँ को अपने बच्चे को छूना बहुत लगता है। वह बार-बार अपने बच्चे को छूह लेना चाहती है। बार-बार अपने बच्चे को छूने से उसको अच्छा लगता है। किसी को ख़ास तरह के कपड़े पहनना पसन्द है। किसी को मख़मली, रेशमी कपड़े पहनना पसन्द है, क्योंकि कपड़ों की भी आखिर छोह होती है न। कपड़े भी छूते हैं हमारे शरीर को, टच (touch) करते हैं हमारे शरीर को। ऐसी कोई भी वस्तु, जो छूने में अच्छी लगती है, वह दूसरे तरह के विषय में आ जाती है, जिसको हम कहते हैं स्पर्श, छूना, टच।
इसके बाद आगे विषय है तीसरा, ‘रूप’। कुछ देखना सुन्दर लगता है। कुछ देखना अच्छा लगता है। फूल देखें, तो अच्छा लगता है। जी करता है बार-बार फूल देखें। कोई चेहरा पसन्द आता है। कोई चेहरा बहुत अच्छा लगता है। जी करता है उसको बार-बार देखें। जी करता है वह चेहरा बस हमारे सामने रहे हमेशा। जी करता है वह चेहरा हम से दूर न जाये। किसी को क्या चीज़ देखना पसन्द है, किसी को क्या चीज़ देखना पसन्द है। लेकिन, जो पसन्द है, वह है ‘रूप’। कोई रूप है, जो अच्छा लगता है। चाहे वह किसी फूल का रूप है, चाहे वह किसी इंसान का रूप है। हो सकता है, क़ुदरत के नज़ारे, वे किसी को देखना अच्छा लगे। क़ुदरत के नज़ारे भी हैं तो रूप। किसी को पहाड़ देखना अच्छा लगता है, किसी को नदियां देखना अच्छा लगता है। रूप है। फूल भी रूप है। किसी का चेहरा भी, पहाड़ भी रूप है, नदियां भी रूप हैं। चाँद, तारे, कुछ भी देखना अच्छा लगता है, तो वह रूप है। यह विषय है ‘रूप’।
चौथा विषय है ‘रस’। रस का यहाँ अर्थ है, स्वाद। टेस्ट (taste)। जो, रसना को अच्छा लगे, जो जीभ को अच्छा लगे। जो खाने में, जो पीने में अच्छा लगे, वह रस है। कितने इन्सान हैं, कितने जीव हैं। किसी को क्या अच्छा लगता है खाने में, पीने में; किसी को क्या अच्छा लगता है खाने में, पीने में। किसी एक को जो खाने में अच्छा लगता है, किसी दूसरे को वह अच्छा नहीं भी लग सकता। किसी को एक चीज़ पीने में अच्छी लगती है, किसी दुसरे को वही चीज़ पीने में अच्छी नहीं भी लग सकती। किसी को क्या खाना पसन्द है, किसी को क्या खाना पसन्द है। किसी को मीठा खाना पसन्द है, किसी को खट्टा खाना पसन्द है। मीठे की भी आगे अलग-अलग केटेगरीज़ (categories) हैं। किसी को किसी प्रकार का मीठा पसन्द है, किसी को किसी और प्रकार का मीठा पसन्द है। लेकिन यह जितना भी खाना है, जितना भी पीना है, वह एक विषय है, रस। किसी को फल खाने पसन्द हैं, किसी को सेब ज़्यादा अच्छा लगता है, केले नहीं अछे लगते। किसी को अनार अच्छे लगते हैं, ख़रबूज़ा अच्छा नहीं लगता। अपना-अपना टेस्ट डिवलप (develop) हो गया। किसी को कौन-सा रस पसन्द है, किसी को कौन-सा रस पसन्द है। बहुत लोग हैं, जो अमरूद नहीं खाना चाहते। उनको अमरूद न-पसन्द हैं। उनको लगता है कि अमरूद सख्त है। अमरूद का जो रस है, अमरूद का जो स्वाद है, वह उनको पसन्द नहीं। पर, बहुत ऐसे भी हैं, जिनको अमरूद का स्वाद ही अच्छा लगता है। किसी को खट्टी वस्तुएँ, खट्टी चीज़ें, चटनी वग़ैरह अच्छी लगती हैं। बहुत लोग हैं, जो खाना खाते समय अचार ज़रूर चाहते हैं, आचार की खटास उनको पसन्द है। किसी को मिर्च का तीखापन पसन्द है। यह जो जीतने भी स्वाद हैं, यह जीतने भी टेस्ट हैं, ये सभी एक विषय में आ जाते हैं। वह विषय है रस।
पाँचवाँ विषय है, ‘गन्ध’। गन्ध है: बू, smell । जो सूंघने में अच्छा लगे, जिसको सूंघें, तो मन खुश हो। जिसको सूंघें, तो अच्छा लगे। देखो, कितनी तरह के पर्फ्यूम आते हैं। क्यूँ आते हैं? कौन लोग खरीदते हैं? वे लोग, जिनको उस ख़ास तरह की smell, वह ख़ास तरह की सुगंध पसन्द है। कितने किस्में आती हैं परफ्यूमज़ (perfumes) की, अतर, फुलेल की। किसी को क्या पसन्द है, किसी को क्या पसन्द है। अलग-अलग खुशबुएँ हैं। रसोई में खाना बनता है। किसी को भूख नहीं लगती, लेकिन उस खाने की खुशबू से उसके अंदर भूख जाग पड़ती है। आम पड़े होते हैं, आम। आम की ख़ास तरह की खुशबू है, आम का अपना स्वाद है। आम की अपनी खुशबू है। वह आम की खुशबू आम इन्सान के अंदर ललक पैदा कर देती है उसको खाने के लिये।
जितनी भी वस्तुएं अच्छी लगती हैं, वे विषय हैं। और ये विषय पाँच समूहों में बांटे जाते हैं:- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। ये विषय अपने-आप में विकार नहीं हैं। आम तौर जब हम बात करते हैं, तो विषय-विकार, ऐसा इकट्ठा बोलते हैं। विषय विकार। अपने आप में वे विकार नहीं हैं। लेकिन इन्सान का उनके प्रति ज़रूरत से ज़्यादा लगाव हो जाना इन्सान के अंदर विकार बन जाता है। किसको अच्छा नहीं लगता रात में आकाश में चाँद को देखना, तारों को देखना। वह रूप है।
ओइ जु दीसहि अम्मबरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
(वाणी भक्त श्री कबीर जी, ३२९, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
अच्छा लगता है। आकाश में देखते हैं, अच्छा लगता है। चाँद अच्छा लगता है। तारे अच्छे लगते हैं। अपने आप में वे विकार नहीं है, रूप है। अपने आप में कोई विकार नहीं, लेकिन अगर कोई आदमी बस उसी रूप में ही फँस जाये, अपने जीवन का मक़सद उसको भूल जये, और बस चाँद देखने में लगा रहे, बस तारे देखने में लगा रहे, तो वह रूप जो बाहर अपने आप में विकार नहीं, इन्सान के अंदर विकार पैदा कर देता है। वह विकार पैदा होने से इन्सान्द अपने जीवन का असल मक़सद भूल जाता है।
मक़सद क्या था? इस संसार में आ कर भगवान की बन्दगी करना, भक्ति करना, प्रभु के नाम का सुमिरन करना। उस मक़सद को भूल जाता है। अपने आप मे विकार नहीं है रूप।
ऐसे ही शब्द अपने आप मे विकार नहीं है। संगीत अपने आप में क्या विकार है? कुछ भी नहीं। भक्त हुये, गुरु साहिबान हुये, उन्होने संगीत का इस्तेमाल किया। संगीत के साथ उन्होने गुरुवाणी गायी। और गुरुवाणी को संगीत के साथ गाना ही तो कीर्तन होता है। उसी को कीर्तन कहते हैं। और कीर्तन ज़रीया बनता है भगवान को पाने को, भगवान की तरफ़ जाने का। अपने आप मे संगीत विकार नहीं। लेकिन उन लोगों का क्या, जो दुनियावी संगीत में ही उलझ कर रह गये? और उनको लगता है की बस यह संगीत यही मक़सद है ज़िन्दगी का। उस संगीत में उन्होने ऐसे-ऐसे गीत गाये, जो गीत उनको भगवान से दूर ले जाने वाले हैं। संगीत अपने आप में विकार नहीं, लेकिन वह इन्सान के लिये विकार बन गया। शब्द विकार बन गया। आवाज़ विकार बन गयी।
ऐसे ही रस है। शरीर है, तो कुछ खाना पड़ेगा। शरीर को चलाने के लिये कुछ खाना पड़ेगा। खाना का मक़सद कि शरीर चलता रहे। शरीर का मक़सद है कि प्रभु की बन्दगी होती रहे। शरीर का मक़सद है कि लोगों की सेवा होती रहे। औरों का, दूसरों का भला होता रहे।
लेकिन, उनका क्या, जो रस में उलझ कर रह गये? उनके जीवन के मक़सद यह हो गया कि खाना है बस। कुछ ख़ास तरह के स्वाद उनको अच्छे लगते हैं, वह खाना है। बहुत सी चीज़ें बाज़ार में मिलती हैं। टेलिविज़न पर उनकी बहुत एडवरटाईज़मेण्टज़ आती हैं। लोग उनको खाते हैं। और ऐसा बहुत बार पढ़ने में, सुनने में आता है कि वे चीज़ें खाने से सेहत का नुक़सान होता है। फिर भी लोग खाते हैं। ऐसी चीज़ें बहुत बिकती हैं। क्यों? उस रस की वजह से, उस स्वाद की वजह से जो लोगों को अच्छा लगता है, चाहे वह सेहत के लिये हानिकारक है। चाहे वह शरीर को नुक़सान देता है। वह रस विकार बन गया। परफ़्यूम (perfume) बिकते हैं, और बहुत से परफ़्यूम नुक़सान करते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा परफ़्यूम लगाया हो, तो नुक़सान करता है। अस्थमा भी करता है। दमे की बीमारी। लेकिन वह परफ़्यूम अच्छा लगता है, वह खुशबू अच्छी लगती है। वह रस, वह गन्ध, वह स्पर्श, वह रूप, ये विकार बन गये। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध अपने आप में बुरे नहीं, लेकिन इन्सान उन्हीं में उलझ कर रह गया। उन्हीं में रच कर रह गया। उस से वह अपने जीवन का असल मक़सद भूल गया। अपने असल मक़सद से वह दूर हो गया। इसलिये ये पाँच विषय पाँच विकार बन गये।
गुरु तेग़ बहादुर जी महाराज कहते हैं: –
बिखिअन सिउ काहे रचिओ
किस लिये इन विषयों में तुम रचे पड़े हो? फंसे पड़े हो? उलझे पड़े हो?
निमख न होहि उदासु ॥
निमख कहते हैं निमेष को। आँख की पलक झपकने का जितना समय होता है, वह है निमेष। गुरुवाणी में उसको निमख कहा है। पुरानी पञ्जाबी का लफ़्ज़।
निमख न होहि उदासु ॥ तुम एक निमख के लिये, एक निमेष मात्र के लिये, पलक झपकने जितने समय के लिये भी तुम उदास नहीं होते।
उदास का यहाँ अर्थ है, उपराम हो जाना। उनके प्रति, उन विषयों के प्रति मोह नहीं रहना। उन विषयों के प्रति कोई attraction मन में न रहे। वह है उदास हो जाना। वे हों भी, तो भी कोई फ़र्क नहीं। वे न भी हों, तो भी कोई फ़र्क नहीं। आँख की पलक झपकने जितना समय, उतनी देर के लिये भी इन पाँच विषयों से मन उपराम नहीं होता। इन पाँच विषयों से मन दूर नहीं होता। इन पाँच विषयों को मन बार-बार, बार-बार हासिल करने की कोशिश करता है। किस लिये रचे पड़े हो पाँच विषयों में? एक पल के लिये भी, आँख झपकने जितना, आँख की पलक झपकने जितना समय, उतनी देर के लिये भी इनसे अपने मन को दूर नहीं करते हो।
कहु नानक भजु हरि मना
गुरु नानक पहले गुरु हुये हैं। उन्ही का नाम बाक़ी के गुरु साहिबान ने गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल किया। कहु नानक: नानक कहो। भजु हरि मना, हरि को भजो, हे मेरे मन! उस परमात्मा का सुमिरन करो। उस ख़ुदा की बन्दगी करो।
इस से क्या होगा?
परै न जम की फास ॥२॥
यम है मौत। फास है पाश, जो फंदा होता है रस्सी का बना। किसी इन्सान के गले में
फंदा डाल दो, उसको गले में फंदा डल गया, उसको कहीं भी घसीटते हुये ले जाओ। चाहो तो उसको कहीं भी टांग दो। गले में पड़ा हुया फंदा जब कस जाये, उसको हटाना बहुत मुश्किल हो जाता है। जिसके हाथ में उस फंदे का दूसरा सिरा है, वह जहां भी चाहे उसके घसीटता हुया ले जा सकता है। वह चाहे, तो उसको कहीं लटका भी सकता है। काल भी ऐसा करता है। मौत भी ऐसा करती है। वह कभी भी, कहीं भी इन्सान को, जीव को, किसी भी जीव को गले में फंदा डाल कर कहीं भी घसीट कर ले कर जा सकती है। यह जीवन का और फिर मर जाने का; मरने के बाद फिर जीने का, और जीने के बाद फिर मरने का, यह जो जन्म-मरण का चक्कर है, इसी में उलझाई रखती है यह मौत। कि मरोगे, तो फिर जियोगे। फिर नया जीवन मिलेगा, किसी और शरीर में चले जाओगे। अगर प्रभु की भक्ति करोगे, ख़ुदा की बन्दगी करोगे, तो इस चक्कर से मुक्त हो जाओगे। इस चक्कर से बच जाओगे। फिर बार-बार पैदा होना, और बार-बार मरना, यह ख़त्म हो जायेगा। अगर हे मेरे मन! तुम हरि को भजोगे, हरि की भक्ति करोगे, प्रभु का सुमिरन करोगे, ख़ुदा की बन्दगी करोगे, तो तुम्हारे गले में यम का पाश नहीं पड़ेगा।
पाँच विषयों में मत उलझना। अपने जीवन का मक़सद याद रखना। इस संसार में तुम क्यों आये हो? जिस मक़सद के लिये आये हो, वह मक़सद पूरा करो। वह मक़सद है ख़ुदा को याद करना, भगवान की बन्दगी करना। अगर तुम ऐसा करोगे, तो तुम्हारे गले में ‘परै न जम की फास’। यम का पाश तुम्हारे गले में नहीं पड़ेगा।
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।