हम मैले तुम ऊजल करते

हर वह पल, जो तेरी याद के बिना बीता, गुनाह बन गया। जैसे-जैसे तुम्हारे नज़दीक होता जा रहा हूँ, वैसे-वैसे अपने किये गुनाहों का अहसास भी तेज़ होता जा रहा है।

सोरठि महला ५ ॥ हम मैले तुम ऊजल करते हम निरगुन तू दाता ॥ हम मूरख तुम चतुर सिआणे तू सरब कला का गिआता ॥१॥ माधो हम ऐसे तू ऐसा ॥ हम पापी तुम पाप खंडन नीको ठाकुर देसा ॥ रहाउ ॥ तुम सभ साजे साजि निवाजे जीउ पिंडु दे प्राना ॥ निरगुनीआरे गुनु नही कोई तुम दानु देहु मिहरवाना ॥२॥ तुम करहु भला हम भलो न जानह तुम सदा सदा दइआला ॥ तुम सुखदाई पुरख बिधाते तुम राखहु अपुने बाला ॥३॥ तुम निधान अटल सुलितान जीअ जंत सभि जाचै ॥ कहु नानक हम इहै हवाला राखु संतन कै पाछै ॥४॥६॥१७॥ (६१३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’