(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
बचपन, जवानी और बुढ़ापा, ये तीन अलग अलग मुकाम इंसान की ज़िंदगी में आते हैं। बचपन खेल-कूद में ही कब बीत गया, इस का इंसान को पता ही नही चलता। जवानी में इंसान अपने काम धन्धों और दिल की ख्वाहिशें पूरी करने में ही लगा देता है। इस को होश तब आता है, जब बूढ़ी उम्र वह कोई काम करने लायक ही नहीं रहता।
बचपन बीत गया खेल-कूद में। जवानी बीत गयी काम-धन्धे में। अब बुढ़ापे में बीमारियों ने घेर लिया है। न बचपन में और न जवानी में अपने मालिक ख़ुदा को याद किया। भगवान की तो याद आई ही नही।
गुरु तेग़ बहादुर साहिब फ़ुरमाते हैं कि ख़ुदा के ज़िक्र के बिना, भगवान की याद के बिना बचपन, जवानी और बुढ़ापा निरार्थक ही चला गया।
बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि ॥
कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु ॥३५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब)।