(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
ग़ुलामी (ग़ुलाम रखने की प्रथा) एक सच्चाई थी और है।
ग़ुलामी एक प्रथा है, जिस में लोगों को पकड़ा जाता है, खरीदा और बेचा जाता है। उन को उन की इच्छा के खिलाफ़ रखा जाता है। गुलामों को काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उन्हें वहाँ से जाने का कोई अधिकार या काम से इनकार करने का अधिकार नहीं होता। उन को तनख्वाह (सैलरी) या मुआवज़ा मांगने का कोई हक नहीं होता।
गुलामों को उन के जन्म के वक्त से भी पकड़ लिया जा सकता है। इस का मतलब यह है कि अपनी ज़िन्दगी के पहले दिन से ही एक इन्सान को उसके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।
चाहे पिछले कुछ वक्त से ग़ुलामी पर ज़्यादातर देशों में पाबन्दी लगा दी गयी है, पर हकीकत में ग़ुलामी प्रथा कई रूपों में अभी भी प्रचलित है; जैसा कि बंधुआ मज़दूरी, कैद में रखे गए घरेलू नौकर, बाल-सैनिक, बच्चे गोद लेने की नकली घटनाएँ, जहां बाद में गोद लिए बच्चों से गुलामों जैसा काम लिया जाता है। यहाँ तक कि जबरन किए गए विवाहों को भी ग़ुलामी के रूप में ही जाना जाना चाहिए।
जब कोई व्यक्ति कर्ज़ के एवज़ में खुद को पेश करता है, तो उस को बंधुआ मज़दूर कहते हैं। कर्ज़ लौटाने के लिए किए जाने वाली मज़दूरी और इस का वक्त निर्धारित नहीं भी किया हो सकता है। ऐसी बंधुआ मज़दूरी अक्सर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती रहती है। इस का अर्थ है कि बंधुआ मज़दूर के बच्चे को इस बात के लिए मजबूर किया जाता है कि वह अपने माँ-बाप का कर्ज़ उतारे। इस काम के लिए उस को बंधुआ मज़दूर बनने पर मजबूर किया जाता है। बंधुआ मज़दूरी आज के वक्त में ग़ुलामी का सब से ज़्यादा प्रचलित रूप माना जाता है।
ग़ुलामी का एक और रूप है। जब किसी व्यक्ति को हिंसा या सज़ा की धमकी दे कर उस से उस की मर्ज़ी के खिलाफ़ काम करवाया जाता है और उस की आज़ादी पर पाबंदी लगा दी जाती है, तो इस को जबरन मज़दूरी करवाना कहा जाता है।
हम अक्सर अलग-अलग देशों में घरेलू नौकरों को कैद में रख कर काम करवाए जाने की ख़बरें पढ़ते हैं। यह ग़ुलामी की एक और किस्म है।
वर्तमान में कई बार बच्चों का युद्ध में लड़ाकों के तौर पर, खास कर के दहशतगर्द संगठनों की और से प्रयोग किया जाता है। यह बाल-सिपाही भी एक तरह से ग़ुलाम ही हैं।
ग़ुलामी की एक और किस्म है। ऐसे मामलों में कोई व्यक्ति किसी बच्चे को गोद ले लेता है और फिर उस बच्चे को एक ग़ुलाम की तरह काम करने को मजबूर किया जाता है।
कई भाईचारों में युवा पीढ़ी को अपनी मर्ज़ी के लड़के या लड़की से शादी करने की इजाज़त नहीं होती। उन को किसी और से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है। अगर वे ऐसा करने से इनकार करें, तो उन को अक्सर निर्दयी शारीरिक सज़ा का सामना करना पड़ता है। कई बार तो उन का कत्ल तक भी कर दिया जाता है और वह भी उन के अपने पारिवारिक सदस्यों द्वारा ही। शारीरिक सज़ा, और यहाँ तक कि कत्ल किए जाने से बचने के लिए युवा, आम तौर पर लड़कियां अपनी इस किस्मत को कबूल कर लेते हैं। ऐसे विवाह जबरन किया गए विवाह हैं और इन को भी एक तरह से ग़ुलामी ही समझा जाना चाहिए।
दूसरे देशों पर हमलों के दौरान कई हमलावरों ने हज़ारों मर्दों, औरतों, लड़कों और लड़कियों को ग़ुलाम बनाया। इन ग़ुलाम बनाए गए लोगों को उन हमलावरों ने अपने-अपने देश में जा कर शरेआम बाज़ारों में बेचा।
कुछ देर पहले तक भी कई औरतों को युद्ध के दौरान काम-वासना की पूर्ति के लिए ग़ुलाम बनाया जाता रहा है।
दिसम्बर १०, १९४८ को संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की। यह घोषणा पहली सार्वभौम स्वीकृति थी कि सभी इन्सानों को मूल हक और आज़ादी प्राप्त है और यह घोषणा आज तक एक ज़िंदा और प्रासंगिक दस्तावेज़ है।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की ६०वीं सालगिरह (दिसम्बर १०, २००८) के मौके पर अमृतवर्ल्ड डॉट कॉम ने सार्वभौम घोषणा को अपना लिया था।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद ४ के अनुसार: –
कोई भी ग़ुलामी या दासता की हालत में न रखा जाएगा, ग़ुलामी-प्रथा और गुलामों का व्यापार अपने सभी रूपों में निषिद्ध होगा।
हम किसी भी तरह की ग़ुलामी के सख़्त खिलाफ़ हैं। हम विश्वास करते हैं कि बंधुआ मज़दूरी, बाल-सिपाही, जबरन मज़दूरी, जबरन विवाह, ग़ुलामी के लिए बच्चों को गोद लेने की नकली घटनाएँ, और युद्ध और दंगों के दौरान औरतों को काम-पूर्ति के लिए ग़ुलाम बनाना, यह सभी ग़ुलामी के ही अलग-अलग रूप हैं।
व्यक्ति, समूह, संस्थाएं, राजनैतिक दल, धार्मिक संगठन और सरकारें ग़ुलामी की इस प्रथा को रोकने के लिए जो कुछ भी कर सकते हों, वह किया जाना चाहिए।