अमरीका में मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने जब अक्टूबर ०४, सन २००१ में वासुदेव पटेल के सीने में अपनी पिस्तोल से गोली मार कर उसकी हत्या की, वह (स्ट्रोमन) इस कत्ल को देश-भक्ति का कारनामा समझ रहा था.
इस हत्या से लगभग एक साल बाद तक भी उस का विचार बदला नहीं था. अपने ब्लॉग पर उसने कुछ ऐसा लिखा, “यह कोई नफ़रत का अपराध नहीं, बल्कि भावना और देशभक्ति का कार्य था, देश और समर्पण का कार्य, बदला लेने, सज़ा देने का कार्य था. यह शान्ति के समय नहीं, बल्कि युद्ध के वक्त किया गया था.”
परन्तु, जब उस को मौत की सज़ा सुनाई गई, उस के बाद उस ने फ़रमाया, “मैं अफ़सोस के साथ कहता हूँ कि मेरे गुस्से, दुःख और हानि की कीमत निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ी. मैंने अपने और मेरे शिकार बने लोगों के परिवारों को नष्ट कर डाला है. निरोल गुस्से और मूर्खता से, मैंने पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और सउदी अरब के कुछ लोगों के साथ कुछ किया. और अब मैं सज़ा-ए-मौत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. और, किसी तरह से भी मुझे उस पर गर्व नहीं हैं, जो मैंने किया.”
वासुदेव पटेल की हत्या से पहले मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने सतंबर १५ को पाकिस्तानी मूल के वकार हसन के सर में गोली मार कर उसका कत्ल कर डाला था. महज़ छः दिन बाद ही मार्क स्ट्रोमन ने रईसउद्दीन के चेहरे पर गोली दाग दी. रईसउद्दीन की जान तो बच गई, मगर उस की एक आँख सदा-सदा के लिये नकारा हो गई.
सतंबर ११, २००१ को संयुक्त राज्य अमरीका के भीतर हुए हमलों की वजह से मार्क स्ट्रोमन बहुत गुस्से में था. उसे लगता था कि अमरीकी सरकार ने इन हमलों का बदला लेने के लिये कुछ नहीं किया और उसे ही कुछ करना होगा. उसने तीन लोगों को मध्य-पूर्व के लोग (अरब मुस्लिम) समझ कर उन पर हमले किये. इन में से दो लोग (पटेल और वकार हसन) की मौत हो गई.
पटेल और वकार हसन का अमरीका के भीतर हुए उन हमलों में किसी प्रकार का कोई हाथ नहीं था. गुस्से में पागल एक व्यक्ति के फतूर का शिकार बने इन मज़लूमों को तो यह भी नहीं पता था कि उन पर हमला आखिर किया क्यों गया.
हैरानी की बात तो यह है कि वासुदेव पटेल न तो मुसलमान था, न ही किसी अरब देश का नागरिक. वह भारतीय मूल का हिंदू था. वह तो सिर्फ इसीलिए मारा गया, क्योंकि कोई सिर-फिरा कातिल उसे मुस्लिम समझ रहा था.
अमरीका में वासुदेव पटेल अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो किसी सर-फिरे की गलतफहमी का शिकार बना. बहुत से सिख भी सिर्फ इस लिये निशाना बने, क्योंकि हमलावर उन्हें मुसलमान समझ रहे थे.
कुछ देर की नफ़रत ने विश्व भर में कितने ही लोगों की हत्याएँ करवाईं है ! नफ़रत की आंधी में कितनी ही स्त्यवंती नारियों के साथ दुराचार हुआ है ! चाहे १९४७ के अगस्त महीने में भारत के विभाजन की बात हो, १९८४ में सिक्खों का कत्लेआम हो, पंजाब में बसों से उतार कर हिंदुओं की हत्याएँ करना हो, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार हो या कश्मीर में पंडितों का दमन, इनसान के भीतर रहते शैतान के कुकृत्यों की सूची बहुत लम्बी है.
मौत की सज़ा का इंतज़ार करते हुए मार्क स्ट्रोमन ने कहा था, “मैं आपको यह नहीं कह सकता कि मैं एक निर्दोष व्यक्ति हूँ. मैं आपको यह नहीं कह रहा कि मेरे लिये अफ़सोस करो, और मैं सच्चाई नहीं छुपाऊँगा. मैं एक इनसान हूँ और मैंने प्यार, दुःख और गुस्से में एक भयन्कर भूल की. और मेरा विश्वास करो कि मैं दिन के एक-एक मिनट में इस की कीमत चूका रहा हूँ.”
कुछ भी हो, मार्क स्ट्रोमन ने अपना गुनाह कबूल किया और अपने पछतावे का इज़हार भी किया. अपने गुनाह को मान लेने से गुनाहगार का गुनाह माफ़ तो नहीं होता, मगर इस से कुछ और लोगों को गुनाहगार न बनने की प्रेरणा अवश्य मिलती है. गुनाहगार का पछतावा कुछ हद तक कुछ लोगों को वही गुनाह करने से रोकता है.
१९८४ में सिक्खों का कत्लेआम, पंजाब में हिन्दुओं की हत्याएँ, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार या कश्मीर में पंडितों का दमन करने के किसी भी तरह के दोषी क्या मार्क स्ट्रोमन का अनुसरण करेंगे? क्या वे अपने गुनाह कबूल करेंगे? गुनाह कबूल करना भी कुछ हद तक बहादुरी ही है. क्या निर्दोषों की हत्याएँ करने वाले अपना गुनाह कबूल कर के कुछ बहादुरी दिखायेंगे?
जुलाई २०, २०११ को टैक्सास की एक जेल में मार्क स्ट्रोमन को ज़हर का टीका लगा कर मौत की सज़ा दे दी गई.
– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’