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इतिहास की समीक्षा निष्पक्ष हो । पाकिस्तान की स्थापना (Hindi/Urdu)

इतिहास की समीक्षा निष्पक्ष हो । पाकिस्तान की स्थापना (Hindi/Urdu)

تواریخ کا جایزہ منصف مزاج ہو
قیام پاکستان

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

Those who cannot remember the past are condemned to repeat it. – George Santayana

#शरणार्थी_मुद्दे । #पाकिस्तान_की_स्थापना ।

मेहरबानी करके पूरी विडियो को सुनिये। इस में मुख्य नुक़ते इस प्रकार हैं: –

* इन्सानों के बीते वक़्त का अध्ययन ही इतिहास है। यह वे घटनायें, वे वाक़ियात हैं, जिनका ज़िक्र लिखित दस्तावेज़ों में किया गया है। यहाँ भूतकाल का मतलब उन घटनाओं से है, जो काफ़ी पहले हो चुकी हों। उन घटनाओं में लिए गए फ़ैसले पूरे हो चुके हों। उन फ़ैसलों के असर होने ख़त्म हो चुके हों, और उन घटनाओं में शामिल लोग मर चुके हों।

* ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद होते वक़्त इंडियन यूनियन और पाकिस्तान की स्थापना के लिये जिन्होने फ़ैसले किये, वे तो बेशक अब ज़िन्दा नहीं रहे, लेकिन जिन पर उन फ़ैसलों के असर हुये, उनमें से कुछ थोड़े-से लोग अभी भी ज़िन्दा हैं। जो मर भी चुके, उन लोगों के वारिस भी मौजूद हैं, जिन पर उन फ़ैसलों का असर अभी तक हो रहा है, और यक़ीनन ही उन फ़ैसलों का असर अभी काफ़ी वक़्त और होता रहेगा।

* मेरा मक़सद इतिहास बताना तो नहीं है। मेरा मक़सद यह दिखाना है कि वर्तमान में क्या हो रहा है। यह अलग बात है कि मैं वर्तमान को दिखाते वक़्त जिन घटनाओं की तरफ़ इशारा कर रहा हूँ, उनको बहुत लोग इतिहास मान चुके हैं।

* इतिहास को याद रखना निहायत ज़रूरी है, क्योंकि एक वक़्त ऐसा भी आता है, जब इतिहास वह नहीं रहता, जो सचमुच हुआ था, बल्कि वह सिर्फ़ वही कुछ रह जाता है, जो लोगों को याद रह जाये। वक़्त के साथ इतिहास ख़ुद को भी शिकस्त दे देता है। मैं चाहता हूँ कि आप को वह सब कुछ ही याद रहे, जो हुआ और जो हो रहा है।

* कहते हैं कि इतिहास फ़तह हासिल करने वाला ही लिखता है। मसला उस वक़्त पैदा होता है, जब एक दूसरे के मुख़ालिफ़ धड़े ख़ुद को फ़तहयाब या मज़लूम ऐलान करते हैं। ऐसी सूरत में इतिहास के दो बिल्कुल मुख़ालिफ़ संस्करण सामने आते हैं। एक ग्रुप के लिए दूसरे ग्रुप का इतिहास सिर्फ़ प्रोपोगंडा है और अपना लिखा गया ज़िक्र ही इतिहास है।

* भारत और पाकिस्तान की आज़ादी का इतिहास अपने-अपने नज़रिये से लिखा गया है। एक ग्रुप उनका है, जो पाकिस्तान की स्थापना के लिए जद्दोजहद करते रहे और उस जद्दोजहद में कामयाब भी हुए। उन्होंने इतिहास की अपने तरीक़े से व्याख्या की है। एक ग्रुप उनका है, जो भारत की राज-सत्ता पर काबिज़ हुए और उन्होंने उस दौर के इतिहास की व्याख्या अपने नज़रिये से की है।

* दिल में नफ़रत भर कर इतिहास का जायज़ा नहीं लिया जाना चाहिये। अगर दिल में नफ़रत भर कर इतिहास की समीक्षा की जाये, तो समीक्षा एकतरफ़ा ही होगी। टू-नेशन थ्योरी (Two Nation Theory) या दो-क़ौमी उसूल का जायज़ा भी लेना हो, तो यह यक़ीनी बनाया जाना चाहिये कि समीक्षा करते वक़्त दिल में किसी प्रकार की नफ़रत न हो। इतिहास में हो चुके किसी शख़्स के काम का जायज़ा लेते वक़्त भी यह ज़रूरी है कि दिल में नफ़रत न हो।

* समीक्षा हमेशा तथ्यों को सामने रखकर होनी चाहिये। सबसे पहले तथ्य बताये जाने चाहिये। उसके बाद उन तथ्यों की समीक्षा की जानी चाहिये।

* मैं अपने ख़्यालात सामने मौजूद तथ्यों पर आधारित करता हूँ। आप इन ख़्यालात से सहमत हों या न सहमत हों, यह अलग बात है, लेकिन मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि मेरे दिल में किसी के लिये भी नफ़रत नहीं है। उन लिये भी मेरे दिल में नफ़रत नहीं है, जिनके ख़्यालात की वजह से, जिनकी नीतियों की वजह से मेरे बुज़ुर्गों को दरबदर होना पड़ा। जिनकी नीतियों की वजह से मेरे बुज़ुर्गों को अपनी ख़ानदानी ज़मीन और गांव से उजड़ना पड़ा। वैसे भी, जो अब मर चुके हैं, उनसे नफ़रत कैसी?

अमेरिका में भारतियों पर नसलवादी हमले

संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) में 22 फ़रवरी, 2017 को नस्लवादी हमले में भारतीय मूल के एक और व्यक्ति श्रीनिवास कुचीभोतला का एडम पुरिन्टन नाम के एक शख़्स ने क़त्ल कर दिया। दो आदमी ज़ख़्मी भी हुए हैं। इन ज़ख़्मी लोगों में भी एक भारतीय मूल का आलोक मदसानी है। दूसरा ज़ख़्मी व्यक्ति इयान ग्रिलट है।

अमेरिका में ही सन २००१ में एक नस्लवादी हमले में भारतीय मूल के ही वासुदेव पटेल की हत्या हुई थी। उस हत्या के लिये जुलाई २०, २०११ को टैक्सास की एक जेल में मार्क स्ट्रोमन को ज़हर का टीका लगा कर मौत की सज़ा दी गई थी। मार्क स्ट्रोमन की मौत के अगले ही दिन मैंने एक लेख लिख कर अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित किया था। उसी लेख को मैं यहाँ पढ़ कर सुना रहा हूँ।

वह लेख इस प्रकार है:-

मार्क स्ट्रोमन को सज़ा-ए-मौत

मार्क स्ट्रोमन को सज़ा-ए-मौत

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

अमरीका में मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने जब अक्टूबर ०४, सन २००१ में वासुदेव पटेल के सीने में अपनी पिस्तोल से गोली मार कर उसकी हत्या की, वह (स्ट्रोमन) इस कत्ल को देश-भक्ति का कारनामा समझ रहा था.

इस हत्या से लगभग एक साल बाद तक भी उस का विचार बदला नहीं था. अपने ब्लॉग पर उसने कुछ ऐसा लिखा, “यह कोई नफ़रत का अपराध नहीं, बल्कि भावना और देशभक्ति का कार्य था, देश और समर्पण का कार्य, बदला लेने, सज़ा देने का कार्य था. यह शान्ति के समय नहीं, बल्कि युद्ध के वक्त किया गया था.”

परन्तु, जब उस को मौत की सज़ा सुनाई गई, उस के बाद उस ने फ़रमाया, “मैं अफ़सोस के साथ कहता हूँ कि मेरे गुस्से, दुःख और हानि की कीमत निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ी. मैंने अपने और मेरे शिकार बने लोगों के परिवारों को नष्ट कर डाला है. निरोल गुस्से और मूर्खता से, मैंने पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और सउदी अरब के कुछ लोगों के साथ कुछ किया. और अब मैं सज़ा-ए-मौत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. और, किसी तरह से भी मुझे उस पर गर्व नहीं हैं, जो मैंने किया.”

वासुदेव पटेल की हत्या से पहले मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने सतंबर १५ को पाकिस्तानी मूल के वकार हसन के सिर में गोली मार कर उसका कत्ल कर डाला था. महज़ छः दिन बाद ही मार्क स्ट्रोमन ने रईसउद्दीन के चेहरे पर गोली दाग दी. रईसउद्दीन की जान तो बच गई, मगर उस की एक आँख सदा-सदा के लिये नकारा हो गई.

सतंबर ११, २००१ को संयुक्त राज्य अमरीका के भीतर हुए हमलों की वजह से मार्क स्ट्रोमन बहुत गुस्से में था. उसे लगता था कि अमरीकी सरकार ने इन हमलों का बदला लेने के लिये कुछ नहीं किया और उसे ही कुछ करना होगा. उसने तीन लोगों को मध्य-पूर्व के लोग (अरब मुस्लिम) समझ कर उन पर हमले किये. इन में से दो लोग (पटेल और वकार हसन) की मौत हो गई.

पटेल और वकार हसन का अमरीका के भीतर हुए उन हमलों में किसी प्रकार का कोई हाथ नहीं था. गुस्से में पागल एक व्यक्ति के फतूर का शिकार बने इन मज़लूमों को तो यह भी नहीं पता था कि उन पर हमला आखिर किया क्यों गया.

हैरानी की बात तो यह है कि वासुदेव पटेल न तो मुसलमान था, न ही किसी अरब देश का नागरिक. वह भारतीय मूल का हिंदू था. वह तो सिर्फ इसीलिए मारा गया, क्योंकि कोई सिर-फिरा कातिल उसे मुस्लिम समझ रहा था.

अमरीका में वासुदेव पटेल अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो किसी सिर-फिरे की गलतफहमी का शिकार बना. बहुत से सिख भी सिर्फ इस लिये निशाना बने, क्योंकि हमलावर उन्हें मुसलमान समझ रहे थे.

कुछ देर की नफ़रत ने विश्व भर में कितने ही लोगों की हत्याएँ करवाईं है ! नफ़रत की आंधी में कितनी ही स्त्यवंती नारियों के साथ दुराचार हुआ है ! चाहे १९४७ के अगस्त महीने में भारत के विभाजन की बात हो, १९८४ में सिक्खों का कत्लेआम हो, पंजाब में बसों से उतार कर हिंदुओं की हत्याएँ करना हो, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार हो या कश्मीर में पंडितों का दमन, इन्सान के भीतर रहते शैतान के बुरे कामों की सूची बहुत लम्बी है.

मौत की सज़ा का इंतज़ार करते हुए मार्क स्ट्रोमन ने कहा था, “मैं आपको यह नहीं कह सकता कि मैं एक बेगुनाह व्यक्ति हूँ. मैं आपको यह नहीं कह रहा कि मेरे लिये अफ़सोस करो, और मैं सच्चाई नहीं छुपाऊँगा. मैं एक इन्सान हूँ और मैंने प्यार, दुःख और गुस्से में एक भयन्कर भूल की. और मेरा विश्वास करो कि मैं दिन के एक-एक मिनट में इस की कीमत चूका रहा हूँ.”

कुछ भी हो, मार्क स्ट्रोमन ने अपना गुनाह कबूल किया और अपने पछतावे का इज़हार भी किया. अपने गुनाह को मान लेने से गुनाहगार का गुनाह माफ़ तो नहीं होता, मगर इस से कुछ और लोगों को गुनाहगार न बनने की प्रेरणा ज़रूर मिलती है. गुनाहगार का पछतावा कुछ हद तक कुछ लोगों को वही गुनाह करने से रोकता है.

१९८४ में सिक्खों का कत्लेआम, पंजाब में हिन्दुओं की हत्याएँ, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार या कश्मीर में पंडितों का दमन करने के किसी भी तरह के दोषी क्या मार्क स्ट्रोमन का अनुसरण करेंगे? क्या वे अपने गुनाह कबूल करेंगे? गुनाह कबूल करना भी कुछ हद तक बहादुरी ही है. क्या निर्दोषों की हत्याएँ करने वाले अपना गुनाह कबूल कर के कुछ बहादुरी दिखायेंगे?

जुलाई २०, २०११ को टैक्सास की एक जेल में मार्क स्ट्रोमन को ज़हर का टीका लगा कर मौत की सज़ा दे दी गई।

यह एक कथा है । पाकिस्तान की स्थापना

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#शरणार्थी_मुद्दे । #पाकिस्तान_की_स्थापना

यह एक कथा है, जो मज़हब के नाम पर रची गई। इसमें ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु की बन्दगी की बात नहीं होने वाली थी। राम वाले, अल्लाह वाले, वाहेगुरु वाले बस बेचारे-से बन के रह गये थे। हुक्मरान बनने की भूख से तड़प रहे ख़ुदग़रज़ सियासतदानों की चालों की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है, जो बहुतों के लिए बहुत पुरानी है। जो इस कथा के पात्र हैं, उनके लिए यह अभी कल की ही बात है। कहते हैं कि वक़्त रुकता नहीं, लेकिन कभी-कभी किसी-किसी के साथ ऐसा भी हो जाता है कि उसके लिये वक़्त थम-सा जाता है। जैसे बर्फ़-सी जम गयी हो ज़िन्दगी। जैसे किसी ब्लैक-होल में गिर पड़ी हो एक पूरी की पूरी नस्ल। रुक गये किसी वक़्त की ही तो कथा है यह।

कोई अटका हुआ है पल शायद।
वक़्त में पड़ गया है बल शायद।
(गुलज़ार)।

यह एक कथा है उन लोगों की, जो जैसे मुजरिम-से करार दे दिए गए हों। जिनका जुर्म था कि वे किसी अलग मज़हब से ताल्लुक रखते थे। जिनका जुर्म था कि वे हिन्दू थे। जिनका जुर्म था कि वे सिख थे। यही उनकी इकलौती पहचान थी। यही पहचान तो उनकी बर्बादी की वजह बन गयी थी। कभी-कभी हो जाता है ऐसा भी कि लापरवाह होना भी गुनाह हो जाता है। वक़्त के मिज़ाज को न समझने की लापरवाही की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है, ख़ैबर पख्तूनख्वा की। बलूचिस्तान की। सिन्ध की। पश्चिमी पंजाब की। और कश्मीर की। लहू की नदी के किनारे एक नये मुल्क की बुनियाद रखने की। अपने बुज़ुर्गों की धरती से बेदखल किये जाने की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है क़त्लेआम की, लूट की, आगज़नी की, अपहरणों की, दर-बदर होने की, और, ………… बलात्कारों की। क़ातिलों, लुटेरों, आगज़नों, अग़वाकारों, और बलात्कारियों की शिनाख़्त तक भी न होने की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है बहुत-से रावणों की, जिस में कहीं कोई राम न थे, जिस में कहीं कोई लक्ष्मण न थे। कितनी ही सीता जैसी सतवंती औरतें यहाँ अग़वा कर ली गयीं। कितनी ही द्रौपदियां अपमानित हुईं। कृष्ण की ग़ैर-मौजूदगी में हुई एक महाभारत की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है बहुत शिक्षाप्रद। अक़्ल की बहुत बातें छिपी हैं इसमें। कथा में शिक्षा हो, यह अलग बात है। कथा में दी गयी शिक्षा से कोई सचमुच ही शिक्षा प्राप्त कर ले, यह अलग बात है। भयंकर ख़ून-ख़राबे से भी शिक्षा न लेने वाले लोगों की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है धरती के एक हिस्से के बटवारे की। मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने का अन्जाम है इसमें। बहकावे में आये सियासतदानों की गाथा है। यह ब्रिटिश इण्डिया के टुकड़े होने की कहानी है। 1947 में पाकिस्तान बनने की ही तो कथा है यह।

हिन्दू और सिख शरणार्थियों की मदद कीजिये

#शरणार्थी_मुद्दे

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

पाकिस्तान में मज़हबी कट्टरवादियों की वजह से सैंकड़ों हिन्दू परिवार पिछले कुछ सालों में भारत में आकर शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं, जिनको भारतीय नागरिकता (हिंदोस्तानी शहरियत) प्राप्त हो चुकी है। लेकिन बहुत परिवार ऐसे भी हैं, जिनके मेम्बरान को, सदस्यों को अभी तक भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं हुई है।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत आने के बाद अफ़ग़ान हिन्दूओं और सिक्खों ने भारत में शरण ली। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान हुकुमत ख़त्म होने के बाद भी वहां दहशतगर्दी की स्थिति में कुछ ख़ास फ़र्क़ ना आने की वजह से भारत में रहने वाले अफ़ग़ान हिन्दू और सिख वापस नहीं जा सके। अब तो अफ़ग़ानिस्तान मेँ तालिबान दुबारा ज़ोर पकड़ते जा रहे हैं, इसलिये इन अफ़ग़ान हिन्दू और सिख शरणार्थियों के वापस अफ़ग़ानिस्तान जाने की उम्मीद भी नज़र नहीं आती। अफ़ग़ानिस्तान के हालात को ले कर रूस, अमेरिका, चाइना, पाकिस्तान, और अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमतों ने कई बार मीटिंग्स की हैं, पर इन अफ़ग़ान हिन्दुओं और सिखों के बारे मेँ कभी भी कोई सलाह-मशविरा नहीं हुआ है।

उधर बांग्लादेश में हिन्दूओं के लिए स्थिति पिछले कुछ सालों से लगातार ख़राब होती जा रही है। हिन्दूओं के क़त्ल, हिन्दूओं के घरों और धार्मिक स्थानों पर हमले एक आम बात हो गई है। इस वजह से हज़ारों हिन्दू बांग्लादेश में अपने घर छोड़कर भारत में आकर शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। उनमें से कई ऐसे हैं, जिनको नागरिकता दी गई है, लेकिन फिर भी बहुत लोग ऐसे हैं, जिनको अभी तक नागरिकता नहीं मिली। असम जैसे कुछ राज्यों में कुछ लोग बांग्लादेशी हिन्दूओं को भारतीय नागरिकता देने का विरोध भी कर रहे हैं।

मेरा यह मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, और पाकिस्तान से आए इन हिन्दू शरणार्थियों को छानबीन के बाद जितनी जल्दी हो सके, भारतीय नागरिकता मिलनी चाहिए। साथ ही साथ, मेरा यह भी मानना है कि सिर्फ़ नागरिकता देने से इन शरणार्थियों की समस्याएँ हल नहीं होने वालीं। उनको यहां पूरी तरह से स्थापित करने के लिए बहुत कोशिशें करनी पड़ेंगी। नागरिकता देना सिर्फ़ एक क़दम है। उनके लिए यहां रोज़गार के भी प्रबंध करने होंगे। उनके लिए सस्ते घरों का भी इंतज़ाम करना होगा।

एक बहुत महत्वपूर्ण क़दम और है, जो भारत में रहने वाले हिन्दूओं और सिखों को उठाना चाहिए।
पाकिस्तान, बांग्लादेश, और अफ़ग़ानिस्तान से आए इन हिन्दू शरणार्थियों में बहुत लड़के और लड़कियां अविवाहित हैं। भारत में रहने वाले हिन्दूओं को चाहिए कि वह इन लड़कों और लड़कियों को अपने लड़कों और लड़कियों के रिश्ते दें और उनकी शादियाँ कराएँ। इससे शरणार्थियों को यहां के समाज में घुल मिल जाने में बहुत आसानी होगी। साथ ही साथ उनको नागरिकता प्राप्त करने में कुछ सुविधा भी हासिल हो जाएगी, क्योंकि शादी करके भारत में नागरिकता लेने शायद आसान होगा। एक शरणार्थी परिवार के लिए एक अविवाहित लड़की की ज़िम्मेदारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। अगर उनकी अविवाहित लड़की की शादी भारत के ही किसी सथापित परिवार में हो जाए, तो उनको एक बड़ी चिंता से छुटकारा भी मिलता है और बाकी के परिवार को यहां मदद भी मिलती है।

भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच शादियाँ शुरू से ही हो रही हैं, लेकिन यह शादियाँ ज़्यादातर भारतीय मुस्लिम परिवारों और उन पाकिस्तानी मुस्लिम परिवारों में हो रही है, जो भारत से हिजरत करके पाकिस्तान चले गए थे। पाकिस्तान में इनको अक्सर मुहाजिर के नाम से जाना जाता है। मुहाजिर का शाब्दिक अर्थ होता है हिजरत करने वाला। यह उर्दू बोलने वाले वह लोग हैं, जो 1947 में या उसके बाद भारत से हिजरत कर के पाकिस्तान चले गए थे। इन मुहाजिरों का भारत में पीछे रह गए अपने रिश्तेदारों से संपर्क बना रहा। पाकिस्तान में जाकर बसने के बावजूद पाकिस्तान के अलग अलग सूबों के लोगों से उनके उतने गहरे सम्बन्ध नहीं बन पाए, जितने गहरे सम्बन्ध उनके भारत में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों से हैं। इसकी साफ़ वजह यह है कि उनकी ज़ुबान, तहज़ीब, और रस्मो-रिवाज भारत के मुसलमानों से ज़्यादा मिलते हैं।

भारतीय मुस्लिम लड़की का शादी करके पाकिस्तान में बस जाना या पाकिस्तानी मुस्लिम लड़की का शादी करके भारत में बस जाना कुछ आम-सी बात है।

इसके मुक़ाबले में पाकिस्तानी हिन्दू परिवारों की शादियाँ भारतीय हिन्दू परिवारों में कम ही हुई हैं। वैसे, कई पाकिस्तानी और भारतीय हिन्दू परिवार हैं, जिनकी आपस में रिश्तेदारियां हैं। कुछ मामलों में यह रिश्तेदारियां 1947 के बंटवारे के पहले से बनी हुई हैं। कुछ रिश्तेदारियां 1947 के बाद भी बनी हैं। लेकिन इतनी बात तो ज़रूर है कि हिन्दू परिवारों में यह रिश्तेदारियां कम और मुस्लिम परिवारों में यह रिश्तेदारियां ज़्यादा बनी हैं।

पाकिस्तान के सिंध के इलाक़े में ऐसे हिन्दू परिवार हैं, जिनके कुछ रिश्तेदार भारत में रहते हैं। इन परिवारों में कभी-कभार शादी होने की ख़बरें भी सुनने में आती हैं।

भारत में जो सियासी हालात हैं, जो राजनैतिक स्थिति है, उसे देखते हुए यह सोचना ग़लत है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, और अफ़ग़ानिस्तान से आए शरणार्थी परिवार सिर्फ़ सरकारी सहायता से ही यहां भारत में जल्दी स्थापित हो जाएंगे। बाहर से आए ये शरणार्थी यहां के लोगों की खुले दिल से की गई सहायता के बिना यहां जल्दी स्थापित ना हो पाएंगे। बिना सहायता के ये यहाँ स्थापित हो जाएंगे, परन्तु जल्दी स्थापित नहीं हो पाएंगे।

1947 मेँ पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत के अन्दर कई रियासतें थी, जिनके राजा हिन्दू या सिख थे। उनमेँ से कुछ राजाओं ने पाकिस्तान से आने वाले बहुत हिन्दू और सिख शरणार्थियों की मदद की थी। उदाहरण के तौर पर पटियाला के महाराजा यादविंदर सिंह ने पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थियों के लिए दिल खोलकर सहायता की थी। उन हिन्दू और सिख राजाओं को कोई सियासी मजबूरियां ना थीं।

आज भारत के सियासी रहनुमाओं को, राजनेताओं को कुछ सियासी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन क्या भारत में रहने वाले आम हिन्दूओं और सिखों को भी कोई सियासी मजबूरी है कि वह बांग्लादेशी, पाकिस्तानी, अफ़ग़ानिस्तानी हिन्दू और सिख शरणार्थियों की सहायता ना कर सकें?

बांग्लादेश, पाकिस्तान, और अफ़ग़ानिस्तान में हमारे लोगों की मुसीबतों पर हमारे चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं होने वाला, अगर हम ख़ुद हमारे ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे इन लोगों की अपने-अपने तरीक़े से कोई सहायता ना कर पाए, तो।

एक बात और है। अगर आप लोग इन शरणार्थियों की मदद नहीं भी करेंगे, तो भी ये यहां आपकी सहायता के बिना ही स्थापित हो जाएंगे। हां, आपकी आने वाली पीढ़ियां कभी यह नहीं कह पाएँगी कि उनके बुज़ुर्गों ने इन शरणार्थियों की कभी मदद की थी। याद रहे कि 1947 के वे शरणार्थी भी, जो अपने तन और मन पर ज़ख़्म ही ज़ख़्म ले कर ख़ाली हाथ यहाँ पहुँचे थे, और जिनकी यहाँ कुछ ख़ास सहायता नहीं की गई थी, आज यहाँ स्थापित परिवारों मेँ गिने जाते हैं।

माँ की महानता का सच । हल्की-फुल्की बातें

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

हर-एक उपदेश या हर-एक बात हर किसी के लिये हो, ऐसा हरगिज़ नहीं है। ऐसा मुमकिन नहीं है कि कोई ख़ास उपदेश या कोई ख़ास बात सुना कर हम हर किसी को कायल कर सकें। कुछ-एक बातें ऐसी भी होती हैं, जो कुछ लोगों के लिये बेमायनी होती हैं, अर्थहीन होती हैं।

मां की महानता का जिक्र बहुत सारे विद्वानों, संतो, महापुरुषों, और लेखकों ने किया है। इसमें कोई शक भी नहीं कि इस संसार में मां का दर्जा बहुत ऊंचा है। यही वजह है कि बहुत सारे लेखकों ने कवियों ने शायरों ने मां के बारे में बहुत ही खूबसूरती से लिखा है।

कौन है, जो माँ की तारीफ़ न करता हो? माँ की महानता का ज़िक्र करते हुए बहुत से मैसेजस सोशल मीडिया पर भी बहुत भेजे जाते हैं। मैं ख़ुद भी ऐसे कई मैसेज औरों को भेजता रहा हूँ।

माँ की महानता का यह सच हम सभी जानते हैं। लेकिन, यह भी एक ग़मगीन हक़ीक़त है कि हमारा यह सच किसी और के लिये सच नहीं भी होता।

ऐसे भी कुछ बदनसीब हैं, जिनके लिये माँ की महानता का सच बिलकुल भी सच नहीं है। ये वे बच्चे हैं, जिनकी माँ उनको पालने में ही छोड़ कर चली गयी, और किसी और मर्द के साथ अपना नया घर बसा लिया। माँ के ज़िन्दा होने के बावजूद जो बच्चा यतीम की तरह पला-बढ़ा, उसके आगे मैं माँ की महानता का व्याख्यान कैसे करूँ? हाँ, यह सच है कि ऐसे भी कुछ बदनसीब हैं, जिनके आगे किसी की भी जुबान बंद हो सकती है।

27-28 साल पहले 3-4 महीने की एक बच्ची को उसकी माँ छोड़कर चली गई और दूसरी जगह किसी और मर्द के साथ ग़ैर-कानूनी तौर पर शादी करके अपना घर बसा बैठी। वक़्त बीता। जब वह बच्ची थोड़ी बड़ी हुई, तो उसका बाप भी दिमाग़ी परेशानी की वजह से घर छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चला गया। उस बच्ची को उसके दादा-दादी ने जैसे-तैसे पाल-पोस कर बड़ा किया। फिर उसकी शादी भी करा दी।

फिर वह मेरे सम्पर्क में आई। उसकी कहानी का तो मुझे पता था, लेकिन कभी उसके मुंह से नहीं सुना कि उसने माँ के बिना और फिर बाप के बिना ज़िन्दगी कैसे बिताई।

अब, मैंने कई बार उसकी बातें सुनी। बहुत बार लम्बी बातचीत हुई। अब मेरे पास पूरी समझ है कि उसने अपनी माँ के बिना और फिर अपने पिता के बिना अब तक की ज़िन्दगी कैसे बिताई।

वह अब मुझे ‘पापा’ कहती है। माँ-बाप के बिना गुज़रे उसके दिन तो मैं नहीं लौटा सकता। हाँ, कुछ कोशिश कर सकता हूँ कि उसकी ज़िन्दगी की यह कमी आने वाले वक़्त में कुछ कम हो जाये।

जब कभी मेरे पास व्हाट्सएप्प (Whatsapp) जैसे किसी ऐप पर माँ या पिता की महानता का कोई मैसेज आता है, तो मेरी हिम्मत नहीं होती कि वह मैसेज मैं अपनी उस बेटी को भेज सकूँ, फॉरवर्ड कर सकूँ।

गर्व या शर्मिंदगी? । हल्की-फुल्की बातें

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

एक सवाल अक्सर मेरे ज़ेहन में आता है कि जिनको अपने बुज़ुर्गों के अच्छे काम पर फ़ख़्र होता है, गर्व होता है, क्या उनको अपने बुज़ुर्गों के या अपने ही समाज के आजकल के लोगों के बुरे काम पर शर्मिंदगी भी होती है कि नहीं?

एक बार कुछ भाइयों से बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि उन्हें फ़ख़्र है कि उन्होंने यह किया, उन्होंने वह किया।

मैंने कहा, “वे जो काम हुए, वे आप लोगों ने नहीं किये, बल्कि हमारे बुज़ुर्गों ने, हमारे पूर्वजों ने किये थे। आपने क्या किया, यह बताईये, सिवाए इसके कि गुरद्वारों के अन्दर तलवारें चलाईं और एक-दूसरे की पगड़ियां उतारीं? आप जो आज कर रहे हैं, उस पर शर्मिन्दगी होती है कि नहीं?”

1947 के बंटवारे में सैकड़ों हिन्दू और सिख औरतों ने सामूहिक आत्महत्याएं की। अभी तक फ़ख़्र करते हैं लोग। मैं जब वह सब सोचता हूँ, तो दर्द से भर जाता हूँ। फ़ख़्र कैसा, भाई? बहुत ग़म की बात है कि हम उनकी हिफ़ाज़त नहीं कर पाये।

देवी दुर्गा और माई भागो की वीरता की गाथाओं पर फ़ख़्र करने वाले लोग अपनी उन हज़ारों निरापराध असहाय औरतों पर फ़ख़्र करते हैं, जिन्होंने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये सामुहिक ख़ुदकुशी कर ली थी, ताकि वे गुण्डों के हाथ न आ जाएं। वे इस बात पर दुःख या शर्मिंदगी क्यों नहीं महसूस करते कि इन औरतों की हिफ़ाज़त नहीं की जा सकी?

अपने अन्दर के खोखलेपन को गर्व की घास-फूस से, फ़ख़्र की चादर से ढांकने की कोशिश करते हैं बहुत लोग।

भूल गये राग-रंग । हल्की-फुल्की बातें (Hindi)

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

लगभग 25-26 साल पुरानी बात है। देहरादून की। स्टूडेंट लाइफ थी। एक सज्जन मेरे होस्टल के पास दुकान करते थे। पंजाबी थे। इसलिये मेरा स्वाभाविक ही उनसे दोस्ताना हो गया।

उन्होंने एक बार मुझे यह पंजाबी में सुनाया:-

भुल्ल गये राग-रंग, भुल्ल गयी चौकड़ी।
तिन्न गल्लां याद रहियां, आटा, लूण, लकड़ी।

हिन्दी में यह कुछ ऐसे होगा:-

भूल गये राग-रंग, भूल गयी चौकड़ी।
तीन बातें याद रहीं, आटा, नमक, लकड़ी।

कुछ दिन बाद मैंने उन्हें यही पंक्तियां सुनाई, पर ‘लूण’ (नमक) की जगह ‘तेल’ बोल गया:-

भुल्ल गये राग-रंग, भुल्ल गयी चौकड़ी।
तिन्न गल्लां याद रहियां, आटा, तेल, लकड़ी।

वह बोले, “तेल नहीं, लूण। ज़िन्दगी जब सबक सिखाने पर आती है, तो आदमी तेल भी भूल जाता है।”

वक़्त बीता। मैंने देहरादून छोड़ दिया और वापिस पंजाब आ गया। बहुत बरसों बाद जब फिर देहरादून गया, तो पता चला कि उनकी मौत हो चुकी थी।

अब जब कोई सब्ज़ी या दाल वगैरह बनाता हूँ, तो सेहत की वजह से तेल या घी बिलकुल नहीं डालता। पर उनकी वह बात बहुत याद आती है, “तेल नहीं, लूण। ज़िन्दगी जब सबक सिखाने पर आती है, तो आदमी तेल भी भूल जाता है।”

भाई, वक़्त ने तो ऐसे-ऐसे सबक़ सिखाये हैं कि मैं नमक भी भूलता जा रहा हूँ।

A Country of Hungry And Homeless People Is Not A Great Country

(Amrit Pal Singh ‘Amrit’)

What would you call the head of any family, who does not provide food and shelter to his own family members, but gives large donations to other families?

A part of the population in many countries sleeps hungry. There are many people in these countries that are homeless. The government of a country is similar to the head of a family. The governments of these countries are unable to provide food and shelter to their own citizens. On the other hand, the same governments spend lavishly on less than useful projects. These governments even give large donations to other countries for various reasons, but mostly, it would seem, to earn a reputation among other countries.

There is a popular saying that charity begins at home. When their own citizens are hungry and homeless, giving donations to other countries for political reasons does not make a country great. It makes them hypocritical.

When a part of its population, even if a very small portion, is hungry and homeless, a country can never claim to be ‘a great country’. If those governing the country ignore their own people, they are simply betraying their country.

A country is not merely a geographical entity. People living in a country are an essential part of that country. A government is formed to take care of its own country and its own people. Own country and own people should be the priority of every government. A government ignoring their own people is a failure.