टू नेशन थ्योरी पर मेरी विडियो का यह पहला हिस्सा है, जिसमें इस विषय पर मैंने विचार दिये हैं कि “नेशन क्या है?”
#पाकिस्तान । #शरणार्थी_मुद्दे । मेहरबानी करके पूरी विडियो देखिये। इस विडियो में मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं: –
* पाकिस्तान बनाने की माँग की अहम बुनियाद टू-नेशन थ्योरी या दो-क़ौमी नज़रिया ही था।
* नेशन क्या है? नेशन की परिभाषा क्या है?
* अगर मुसलमान अपने-आप में अलग नेशन हैं, तो क्या वे सिविक नेशन (Civic Nation) हैं, एथनिक नेशन (Ethnic Nation) हैं, या लिंगुइस्टिक नेशन (Linguistic Nation) हैं?
* मुस्लिम लीग ने जब मुस्लिम नेशन का मुद्दा उठाया, तो उन्होने दरअसल नेशन की एक अलग परिभाषा देने की कोशिश की थी। इस परिभाषा के अनुसार religion या मज़हब ही नेशन है।
हर-एक उपदेश या हर-एक बात हर किसी के लिये हो, ऐसा हरगिज़ नहीं है। ऐसा मुमकिन नहीं है कि कोई ख़ास उपदेश या कोई ख़ास बात सुना कर हम हर किसी को कायल कर सकें। कुछ-एक बातें ऐसी भी होती हैं, जो कुछ लोगों के लिये बेमायनी होती हैं, अर्थहीन होती हैं।
मां की महानता का जिक्र बहुत सारे विद्वानों, संतो, महापुरुषों, और लेखकों ने किया है। इसमें कोई शक भी नहीं कि इस संसार में मां का दर्जा बहुत ऊंचा है। यही वजह है कि बहुत सारे लेखकों ने कवियों ने शायरों ने मां के बारे में बहुत ही खूबसूरती से लिखा है।
कौन है, जो माँ की तारीफ़ न करता हो? माँ की महानता का ज़िक्र करते हुए बहुत से मैसेजस सोशल मीडिया पर भी बहुत भेजे जाते हैं। मैं ख़ुद भी ऐसे कई मैसेज औरों को भेजता रहा हूँ।
माँ की महानता का यह सच हम सभी जानते हैं। लेकिन, यह भी एक ग़मगीन हक़ीक़त है कि हमारा यह सच किसी और के लिये सच नहीं भी होता।
ऐसे भी कुछ बदनसीब हैं, जिनके लिये माँ की महानता का सच बिलकुल भी सच नहीं है। ये वे बच्चे हैं, जिनकी माँ उनको पालने में ही छोड़ कर चली गयी, और किसी और मर्द के साथ अपना नया घर बसा लिया। माँ के ज़िन्दा होने के बावजूद जो बच्चा यतीम की तरह पला-बढ़ा, उसके आगे मैं माँ की महानता का व्याख्यान कैसे करूँ? हाँ, यह सच है कि ऐसे भी कुछ बदनसीब हैं, जिनके आगे किसी की भी जुबान बंद हो सकती है।
27-28 साल पहले 3-4 महीने की एक बच्ची को उसकी माँ छोड़कर चली गई और दूसरी जगह किसी और मर्द के साथ ग़ैर-कानूनी तौर पर शादी करके अपना घर बसा बैठी। वक़्त बीता। जब वह बच्ची थोड़ी बड़ी हुई, तो उसका बाप भी दिमाग़ी परेशानी की वजह से घर छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चला गया। उस बच्ची को उसके दादा-दादी ने जैसे-तैसे पाल-पोस कर बड़ा किया। फिर उसकी शादी भी करा दी।
फिर वह मेरे सम्पर्क में आई। उसकी कहानी का तो मुझे पता था, लेकिन कभी उसके मुंह से नहीं सुना कि उसने माँ के बिना और फिर बाप के बिना ज़िन्दगी कैसे बिताई।
अब, मैंने कई बार उसकी बातें सुनी। बहुत बार लम्बी बातचीत हुई। अब मेरे पास पूरी समझ है कि उसने अपनी माँ के बिना और फिर अपने पिता के बिना अब तक की ज़िन्दगी कैसे बिताई।
वह अब मुझे ‘पापा’ कहती है। माँ-बाप के बिना गुज़रे उसके दिन तो मैं नहीं लौटा सकता। हाँ, कुछ कोशिश कर सकता हूँ कि उसकी ज़िन्दगी की यह कमी आने वाले वक़्त में कुछ कम हो जाये।
जब कभी मेरे पास व्हाट्सएप्प (Whatsapp) जैसे किसी ऐप पर माँ या पिता की महानता का कोई मैसेज आता है, तो मेरी हिम्मत नहीं होती कि वह मैसेज मैं अपनी उस बेटी को भेज सकूँ, फॉरवर्ड कर सकूँ।
एक सवाल अक्सर मेरे ज़ेहन में आता है कि जिनको अपने बुज़ुर्गों के अच्छे काम पर फ़ख़्र होता है, गर्व होता है, क्या उनको अपने बुज़ुर्गों के या अपने ही समाज के आजकल के लोगों के बुरे काम पर शर्मिंदगी भी होती है कि नहीं?
एक बार कुछ भाइयों से बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि उन्हें फ़ख़्र है कि उन्होंने यह किया, उन्होंने वह किया।
मैंने कहा, “वे जो काम हुए, वे आप लोगों ने नहीं किये, बल्कि हमारे बुज़ुर्गों ने, हमारे पूर्वजों ने किये थे। आपने क्या किया, यह बताईये, सिवाए इसके कि गुरद्वारों के अन्दर तलवारें चलाईं और एक-दूसरे की पगड़ियां उतारीं? आप जो आज कर रहे हैं, उस पर शर्मिन्दगी होती है कि नहीं?”
1947 के बंटवारे में सैकड़ों हिन्दू और सिख औरतों ने सामूहिक आत्महत्याएं की। अभी तक फ़ख़्र करते हैं लोग। मैं जब वह सब सोचता हूँ, तो दर्द से भर जाता हूँ। फ़ख़्र कैसा, भाई? बहुत ग़म की बात है कि हम उनकी हिफ़ाज़त नहीं कर पाये।
देवी दुर्गा और माई भागो की वीरता की गाथाओं पर फ़ख़्र करने वाले लोग अपनी उन हज़ारों निरापराध असहाय औरतों पर फ़ख़्र करते हैं, जिन्होंने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये सामुहिक ख़ुदकुशी कर ली थी, ताकि वे गुण्डों के हाथ न आ जाएं। वे इस बात पर दुःख या शर्मिंदगी क्यों नहीं महसूस करते कि इन औरतों की हिफ़ाज़त नहीं की जा सकी?
अपने अन्दर के खोखलेपन को गर्व की घास-फूस से, फ़ख़्र की चादर से ढांकने की कोशिश करते हैं बहुत लोग।
लगभग 25-26 साल पुरानी बात है। देहरादून की। स्टूडेंट लाइफ थी। एक सज्जन मेरे होस्टल के पास दुकान करते थे। पंजाबी थे। इसलिये मेरा स्वाभाविक ही उनसे दोस्ताना हो गया।
वह बोले, “तेल नहीं, लूण। ज़िन्दगी जब सबक सिखाने पर आती है, तो आदमी तेल भी भूल जाता है।”
वक़्त बीता। मैंने देहरादून छोड़ दिया और वापिस पंजाब आ गया। बहुत बरसों बाद जब फिर देहरादून गया, तो पता चला कि उनकी मौत हो चुकी थी।
अब जब कोई सब्ज़ी या दाल वगैरह बनाता हूँ, तो सेहत की वजह से तेल या घी बिलकुल नहीं डालता। पर उनकी वह बात बहुत याद आती है, “तेल नहीं, लूण। ज़िन्दगी जब सबक सिखाने पर आती है, तो आदमी तेल भी भूल जाता है।”
भाई, वक़्त ने तो ऐसे-ऐसे सबक़ सिखाये हैं कि मैं नमक भी भूलता जा रहा हूँ।
दान देना शुभ कर्म है, परन्तु अक्सर ऐसा हो जाता है कि दान करने वाले में अहंकार का भाव पैदा हो जाता है। अहंकार का भाव पैदा हो जाना अशुभ कर्म है। शुभ कर्म होने के बावजूद दान व्यक्ति में अहंकार का अशुभ भाव पैदा कर सकता है। इस से सावधान रहने की बहुत ज़रूरत है। दान किया जाये, परन्तु अहंकार का भाव रखकर नहीं। दान किया जाये, तो मन में यह धारणा हो कि “दान करना मेरा धर्म है, मेरा कर्तव्य है। दान देकर मैं किसी पर अहसान नहीं कर रहा।”
यूद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को कहा था, “मैं कर्मों के फल की इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता, अपितु “देना कर्तव्य है”, यह समझकर दान देता हूँ”। – वनपर्व, महाभारत।
नानक क़हत जगत सभ मिथिआ जिउ सुपना रैनाई॥ (सारंग महला 9, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
जगत मिथ्या है, नाशमान है। हक़ीक़त में इस का अपना अस्तित्व उसी प्रकार का ही है, जैसे किसी सपने का अस्तित्व होता है। रात को आए सपने के अस्तित्व के बारे में क्या कहा जाए? क्या उस का अस्तित्व है? क्या उस का अस्तित्व नहीं है? सपने का अस्तित्व हो कर भी वह अस्तित्व रहित है। सपना मिथ्या है। सपने में घटित घटना असलियत में घटित हुई ही नहीं, परंतु मन ने सपने में घटित घटना को असली मान लिया। इसीलिए, भयानक सपने से यह डर जाता है, दुख का सपना देख के दुखी हो जाता है और खुशी का सपना देख कर खुश हो जाता है। न कोई भयानक घटना घटी, न कोई दुखभरी घटना हुई, न ही खुशी की कोई बात हुई। केवल सपना आया, पर मन डर गया, दुखी हो गया या खुश हो गया। कुछ भी घटित नहीं हुया, पर मन ने डर, दुख या सुख को महसूस कर लिया।
एक मां को बिछड़ा बेटा मिल गया और एक बेटे को बिछड़ी मां मिल गयी। पढ़ कर भावुक हो गया हूँ। हज़ारों बच्चे अपने मां बाप से बिछड़े, पर उनमें से बहुत फिर कभी मिल नही पाये। गणेश को बहुत बधाई कि अंततः वह अपनी मां के चरणों तक पहुँच पाया। फिर भी, मैं यह महसूस कर सकता हूँ कि २३ साल तक अपने आप को ‘अनाथ’ समझ कर जीना उसे कैसे लगा होगा।
मन का काम है मनन करना, विचार करना। इच्छा या कामना भी मन मेँ ही पैदा होती है।
कामना पूरी होने का यक़ीन होना ही आशा या उम्मीद है। कामना पूरी न होने का ख़दशा होना बेउम्मीदी या आशाहीन होना है। आशा मन मेँ ख़ुशी की लहर पैदा करती है। बेउम्मीदी मन मेँ ग़म पैदा होने की वजह बन जाती है।
इच्छा पूरी हो जाए, जो जीव की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं होता। वह ऐसे महसूस करता है, जैसे आसमान मेँ ऊंची उड़ान भर रहा हो।
इच्छा पूरी न हो, तो जीव उदास हो जाता है। वह ऐसे महसूस करता है, जैसे किसी गहरी खाई मेँ गिर पड़ा हो।
ख़ुशी मिल जाना, या ख़ुशी की महज़ उम्मीद ही बंध जानी बहुत होती है मन को ऊंचे आसमान मेँ उड़ान भरने के लिए। ग़म मिल जाना, या ग़म की सिर्फ़ आशंका ही हो जानी बहुत होती है मन को किसी अँधेरी गहरी खाई मेँ फेंकने के लिए।
एक आम इन्सान कभी अपनी सीमित-सी दुनिया के आसमान मेँ खुशियों मेँ ऊंची उड़ानें भरने के भर्म मेँ पड़ा रहता है और कभी अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी की किसी गहरी खाई मेँ गिरा हुआ वह ग़म के प्याले पी रहा होता है। कभी सुख, कभी दुख। कभी ख़ुशी का मौसम, कभी ग़मगीन माहौल।
ऊंची उड़ान और गहरी खाई के बीच झूलता रहता है एक साधारण व्यक्ति। कभी मन ख़ुशी के आकाश मेँ ऊंचा जा पहुंचता है और कभी ग़म की गहरी खाई मेँ पड़ा हुआ मातम मनाने लगता है।
कबहू जीअड़ा ऊभि चड़तु है
कबहू जाइ पइआले ॥
(८७७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।