मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* पोठोहार और हज़ारा के हिन्दू और सिख अपनी अलग ज़बान और अलग रस्म-ओ-रिवाज की वजह से अपनी अलग पहचान रखते थे। पोठोहार और हज़ारा के हिन्दू, सिख ज़्यादातर अरोड़ा बिरादरी, दूसरी खत्री बिरादरियों, या ब्राह्मण बिरादरी की बैकग्राउण्ड से थे। यह बिरादरियां पोठोहार और हज़ारा के इलावा आज के ख़्यबेर पख्तूनख्वा के कुछ ज़िलों, जैसे कोहाट, पेशावर, नौशेरा, सवाबी, मरदान, पंजाब में ज़िला गुजरात, ज़िला मंडी बहाउद्दीन, और कश्मीर में मीरपुर तक में भी मौजूद थीं।
* वो लोग पोठोहारी बोली बोलते थे। हज़ारा में इसी पोठोहारी को थोड़ा-सा अलग लहज़े में बोलते थे, जिसको हिन्दको कहते हैं। हिन्दको न सिर्फ़ हज़ारा में, बल्कि कोहाट और पेशावर तक भी बोली जाती है। यही बोली मीरपुर के इलाके में मीरपुरी कही जाती है। अफ़ग़ानिस्तान के कुछ हिस्सों के हिन्दू और सिख भी पश्तो या दारी के साथ-साथ हिन्दको भी बोलते थे।
* पोठोहार में बहुत सारे हिन्दू और सिख काफ़ी अमीर थे। वो ज़मीनों के मालिक थे। कई कारख़ानेदार भी थे।
* उनके उस वक़्त के समाज को इण्डियन पंजाब के आज के हिन्दू समाज और सिख समाज के नज़रिये से देखना बहुत बड़ी ग़लती होगी। आज के पंजाब के हिन्दुओं और सिखों के उलट पोठोहार और हज़ारा के हिन्दू और सिख न सिर्फ़ एक ही समाज थे, बल्कि उन हिन्दुओं और सिखों में से ज़्यादातर आपस में रिश्तेदार भी थे। एक ही खानदान में कुछ लोग हिन्दू थे और कुछ लोग सिख। किसी हिन्दू का कोई सगा भाई सिख होना एक आम बात थी।
* अकाली दल के रहनुमा मास्टर तारा सिंघ को अक्सर सिख रहनुमा के तौर पर ही जाना जाता है, लेकिन उनके इलाके में वो हिन्दुओं के भी रहनुमा थे। मास्टर तारा सिंघ ख़ुद पोठोहारी थे। पोठोहार और हज़ारा में वो हिन्दुओं में भी बहुत पॉपुलर थे। मास्टर तारा सिंघ ख़ुद भी हिन्दू माँ-बाप के घर में पैदा हुये थे।
* यह सभी लोग पोठोहार, हज़ारा, पेशावर, सिरायकिस्तान, सिन्ध, यहाँ तक कि अफ़ग़ानिस्तान वग़ैरा के भी मूलनिवासी हैं। ये लोग हज़ारों सालों से इन्ही इलाक़ों में रहते आये थे और कभी इन इलाक़ों में राज करते थे।
* हिन्दूशाही हुकूमत के दौरान ये हिन्दू पोठोहार में बहुत ताक़तवर थे। कटासराज तीर्थ का आजकल का मन्दिर हिन्दूशाही हुकूमत में ही बना था।
* जो लोग मेरी बातों की तस्दीक़ करना चाहते हैं, वो हरिद्वार जायें और हज़ारा के इलाके के पण्डे को मिलें। उनसे हज़ारा की 1947 और पहले की वहियां देखें। सब बातें साफ़ हो जायेंगी।
* पोठोहार और सरायकी के सारे इलाक़ों में हिन्दू और सिख औरतें बहुत ख़ूबसूरत होती थीं। उनकी ख़ूबसूरती ही 1947 में उनकी बड़ी दुश्मन बन गयी थी। सबसे ज़्यादा हिन्दू और सिख लड़कियाँ और औरतें उन्हीं इलाक़ों से अग़वा कीं गईं थीं, जहाँ लड़कियाँ बड़ी ख़ूबसूरत होती थीं।
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* गुण्डे, मुस्लिम नेशनल गार्ड्स, और बाउंडरी फ़ोर्स का ही हिस्सा बलूच मिलिट्री ने लाहौर की गलियों में हिन्दुओं और सिखों का बाक़ायदा ऐसे शिकार किया, जैसे पिछले दौर में राजा-महाराजा अपने ख़ास फ़ौजियों के साथ जँगलों में जाकर जानवरों का शिकार किया करते थे। मज़हबी बुनियाद पर दिलों में नफ़रत भर कर बैठे ये लोग हिन्दू को भेड़ और सिख को सूअर कहते थे। गुण्डे, मुस्लिम नेशनल गार्ड्स, और बलूच मिलिट्री के लोग अपने हिसाब से इन्सानों का नहीं, बल्कि भेड़ों और सूअरों का शिकार कर रहे थे।
* लाहौर की गलियों में, सड़कों पर, और रेलवे स्टेशन पर, हर जगह ही अपनी जान बचाने के लिये लाहौर छोड़कर भागने की कोशिश करते ये हिन्दू सिख वक़्त के ख़िलाफ़ पहले से ही हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। लाहौर की गलियों में, लाहौर की सड़कों पर गाजर-मूली की तरह काटे गये हिन्दुओं और सिखों की लाशें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। कितने दिनों तक हिन्दुओं और सिखों की लाशें लाहौर की गलियों और सड़कों में पड़ी-पड़ी सड़ती रहीं। कौन करता उनका अन्तिम संस्कार? वहां उनका हमदर्द था भी कौन?
* कुछ लाशों के संस्कार लाहौर के बाक़ी बचे हिन्दुओं और सिखों ने अपनी गलियों में ही कर दिया था। शमशान में भी इतनी लाशें जलाने की जगह कहाँ थी? शमशान तक कोई लाश ले भी जाते, तो गुण्डे लाश को श्मशान तक लेकर आये लोगों को भी लाशों में बदल देते। एक-एक चिता में दो-दो, तीन-तीन लाशें रखकर भी जलाई गई थीं। आख़िर इतनी लकड़ियाँ भी तो कहाँ से लाते?
* आज के हिन्दू और सिख तो अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि उन दिनों हिन्दुओं और सिखों पर क्या-क्या बीती थी। लाहौर की गलियों में उन दिनों कितने ही जलियांवाला बाग़ जैसे क़त्लेआम हुये।
* कुछ भाइयों ने कहा है कि मैं दबे मुर्दे उखाड़ रहा हूँ। वो आपके लिये दबे मुर्दे होंगे। मेरे दिल में तो वो अभी तक बसे बैठे हैं।
* मेरी हर बात में मुहब्बत का पैग़ाम है। उन शहीदों के लहू की महक ऋषियों, मुनियों, गुरुओं की इस ज़मीन में इतनी रच-बस गयी है कि इस मिट्टी से उन शहीदों के लहू की ही ख़ुशबु आती है। ऋषियों, मुनियों, गुरुओं, शहीदों की इस धरती की ख़ुशबु लेकर मुहब्बत का ही पैग़ाम दिया जाता है, नफ़रत का नहीं। मुहब्बत का यही पैग़ाम है कि आओ, हम मिलकर कोशिश करें कि फिर से ऐसे क़त्लेआम न हों।
* 12 और 13 अगस्त को भारतनगर, सिंघपुरा, डब्बी बाज़ार, और लोहारी गेट जैसे इलाक़ों में हिन्दुओं और सिखों का शिकार खेला गया। इन दो दिनों में इन इलाक़ों में सैंकड़ों हिन्दुओं और सिखों को उनके घरों से निकाल कर मार दिया गया। 13 अगस्त को लाहौर लोको वर्कशॉप के कुछ हिन्दू वर्कर्स को भी क़त्ल कर दिया गया।
* 13 अगस्त को पूरे लाहौर में कर्फ्यू लगा दिया गया। हिन्दू सिख अपने घरों में क़ैद होकर रह गये। उनके भागने के सभी रास्ते अब बन्द हो गये। हमलावरों के लिये इस कर्फ्यू का कोई मतलब नहीं था। कर्फ्यू के दौरान ही वो हिन्दू सिखों के घरों को आग लगा देते थे। सैंकड़ों हिन्दू और सिख अपने ही जलते हुये घरों के अन्दर राख का ढेर बन गये। सैंकड़ों हिन्दू सिख अपने जलते घरों से जान बचाने के लिये जब बाहर निकले, तो बलूच मिलिट्री और पुलिस की गोलियों का निशाना बना दिये गये।
* वक़्त के मिज़ाज को समझने में नाकाम रहे, जान बचाने की कोशिश करते ये हिन्दू सिख ये नहीं जानते थे कि उनके पास अब भारत जाने की ऑप्शन है ही नहीं। उनको तो अब बस मरना ही है, चाहे अपने ही जलते हुये घरों के अन्दर जल कर मर जायें, चाहे बाहर आकर गोलियों से मरें या चाकू-छुरियों से काटे जायें।
* 4 सितम्बर को रायविंड रेलवे स्टेशन पर हिन्दु सिख refugees की ट्रेन को रोककर उन पर हमला किया गया। इस क़त्लेआम में 300 हिन्दू सिख refugees मारे गये।
* ढोल बजा-बजा कर लाहौर ज़िले के गांवों को घेरकर हिन्दुओं और सिखों पर इस तरह से हमले किये गये, जैसे जानवरों के शिकार के दौरान अब भी करते हैं। ढोल बजा-बजा कर हमले सिर्फ़ लाहौर ज़िले में ही नहीं, बल्कि पंजाब के कई और ज़िलों में भी किये गये थे।
* कसूर शहर की आबादी में मुसलमानों की मेजोरिटी थी, लेकिन इसके आसपास के गाँवों में ज़्यादा आबादी सिखों की थी। बाउंडरी कमिश्मन की रिपोर्ट आने पर जब यह साफ़ हो गया कि कसूर पाकिस्तान के हिस्से में आया है, तो एकदम हिन्दुओं और सिखों का क़त्लेआम शुरू हो गया। कसूर शहर में हिन्दुओं और सिखों के मुहल्लों पर बारी-बारी से हमले किये गये। कसूर शहर और साथ वाले इलाक़ों में दो दिन में ही सैंकड़ों हिन्दुओं और सिखों का क़त्लेआम कर दिया गया।
* कसूर से भाग कर फिरोज़पुर की तरफ़ जाते हुये हिन्दुओं सिखों को सतलुज दरिया के पुल पर कब्ज़ा किये बैठे फ़ौजियों ने फायरिंग कर के मार डाला।
* डंके कलां पर 19 अगस्त को हमला कर के 200 के लगभग हिन्दुओं और सिखों का क़त्लेआम किया गया। 80 से ज़्यादा औरतों और बच्चों को अग़वा कर लिया गया।
* 19 अगस्त को ही एक बड़ा क़त्लेआम हथर गांव से निकल कर भारत जा रहे हिन्दुओं और सिखों के एक काफ़िले का हुया। इसमें औरतों और बच्चों समेत तक़रीबन 1200 हिन्दू और सिखों को जोरेवाला हेड पर क़त्ल कर दिया गया। तक़रीबन 100 औरतों को अग़वा किया गया।
* तलवंडी में मिल्ट्री की मदद से 24 अगस्त को ज़ोरदार हमला किया गया। इस बड़े क़त्लेआम में 400 से भी ज़्यादा हिन्दुओं और सिखों की मौत हुई। बची हुई सभी औरतों को अग़वा कर लिया गया। बहुत थोड़े-से हिन्दू सिख इस गांव के बचे, जो बहुत बुरी हालत में इण्डिया पहुँचे।
* 24 अगस्त को ही जागूवाला पर हमला करके बहुत बड़ा क़त्लेआम किया गया। 1400 हिन्दुओं सिखों में से कोई 50 ही बच सके।
* बुघियाणा कलां और आसपास के गांवों के हिन्दू और सिख पनाह लेने के लिये तलवंडी पहुँचे। हमला होने पर इन्होंने मुक़ाबला किया। यहाँ 600 हिन्दू सिख मारे गये।
* जिया बग्गा गाँव का क़त्लेआम बहुत बड़े पैमाने पर हुआ, जिसमें तक़रीबन 1000 हिन्दू और सिख शरेआम क़त्ल किये गये। यह 27 अगस्त को हुआ था, गान्धी जी की लाहौर यात्रा के 21 दिन बाद।
* 29 अगस्त को जमशेर कलां गाओं पर बहुत बड़ी भीड़ ने बन्दूकों और बरछों से लैस होकर ढोल बजाते हुये हमला कर दिया। हिन्दुओं और सिखों की आबादी इस गांव में 500 थी। हिन्दुओं और सिखों ने समझ लिया कि अब गाँव को छोड़ना ही पड़ेगा। बहुत बुरी हालत में गाँव के सभी हिन्दू सिख अपने घर खुले छोड़ वहां से ख़ाली हाथ निकले। गाँव से निकलने के बाद हिन्दुओं सिखों के इस लगभग 500 के काफ़िले पर हमला कर दिया गया, जिनमें से 50 आदमी, 80 औरतें, और 70 बच्चे शहीद हो गये। लाहौर छोड़ कर न जाने की गान्धी जी की सलाह के 23 दिन बाद यह क़त्लेआम हुआ था।
* 4 सितम्बर को रायविंड रेलवे स्टेशन के पास एक रिफ्यूजी ट्रेन को रोककर तक़रीबन 300 हिन्दुओं सिखों को क़त्ल कर दिया गया।
* सब हिन्दू सिख लाहौर के गाँवों से खाली हाथ भगाये गये। उनको इतना वक़्त भी नहीं मिला कि वो कुछ ज़रूरी सामान अपने साथ उठा लाते। उनको पक्का यक़ीन था कि लाहौर इण्डिया के हिस्से आयेगा।
* एक बार फिर से लाहौर जाने का पहले से ही बना अपना प्रोग्राम गान्धी जी ने 2 सितम्बर को रद्द कर दिया। उनके कहने पर लाहौर में ही रुके रहे हिन्दू और सिख या तो भारत में रिफ्यूजी कैम्प्स में फटेहाल बैठे थे या लाहौर के क़त्लेआम का शिकार हो चुके थे। अब लाहौर में उन्होंने क्या करने जाना था?
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* अमृतसर के दंगाइयों ने लाहौर के दंगाइयों को चूड़ियाँ और मेहंदी भेजी कि लाहौर के दंगाई और गुण्डे पूरे मर्द नहीं हैं क्योंकि उन्होंने लाहौर के हिन्दुओं और सिखों पर असरदार हमले नहीं किये।
* 21 जून को मोची गेट के बाहर एक बस को रोक कर 10 हिन्दू सिखों को चाकुओं से क़त्ल कर दिया गया। पूरे शहर में अलग-अलग जगहों पर कई और घरों और इमारतों को आग लगा दी गई। डब्बी बाज़ार में गुरुद्वारा बाउली साहिब पर भी हमला करके आग लगाने की कोशिश की गई।
* अगले दिन शाहलमी गेट लाहौर के सबसे बड़े और बिज़ी ट्रेडिंग सेंटर के तौर पर जाना जाता था। यहां के लगभग सभी बिज़नेस हिन्दुओं के ही थे। सरकारी अफ़सरान की शह पर दंगाइयों ने हिन्दुओं का यह ट्रेडिंग सेंटर राख के ढेर में बदल कर रख दिया। आग की लपटों से बचकर भाग रहे हिन्दुओं पर पुलिस ने कई बार फायरिंग की। हिन्दुओं की जायदाद और बिज़नेस का यह उस वक़्त तक का एक दिन में हुआ सबसे बड़ा नुक़सान था।
* जुलाई के महीने भी हिन्दुओं और सिखों पर हमले जारी रहे। मुगलपुरा रेलवे वर्कशॉप पर हमला करके दंगाइयों की एक बड़ी भीड़ ने बहुत सारे हिन्दू और सिख वर्कर्स को क़त्ल कर दिया। कई लोग ज़ख़्मी भी हुये। 23 जुलाई को मुगलपुरा रेलवे स्टेशन के पास एक ट्रेन को रोककर उसमें सवार 8 हिन्दुओं और सिखों को क़त्ल कर दिया गया। 12 हिन्दू और सिख ज़ख़्मी हुये।
* 6 हिन्दुओं और सिखों को लाहौर के अलग-अलग इलाक़ों में छुरे मार दिये गये। भाटी गेट के बाहर एक सिनेमा हाल में आग लगा दी गयी, जो किसी हिन्दू का था।
* सर फ़िरोज़ खान नून ने तो अप्रैल 1946 या उससे भी पहले ग़ैर-मुसलमानों पर चंगेज़ खान और हलाकु खान के किये क़त्लेआम दुहराने की बात तक भी कह दी थी, अगर ग़ैर-मुसलमान लोग आबादी के तबादले के ख़िलाफ़ रुकावट वाला रवैया रखेंगे।
* जब पंजाब में लाहौर, मुल्तान, रावलपिण्डी, अमृतसर, और दूसरे शहरों में एक साथ हिन्दुओं और सिखों का क़त्लेआम शुरू हुआ, तो मास्टर तारा सिंघ को समझ आ गई थी कि ये क़त्लेआम कौन लोग करा रहे हैं और क्यों करा रहे हैं। वह यह समझते थे कि अभी जिनकी हुकूमत आई ही नहीं, तब वो ऐसे क़त्लेआम कर रहे हैं, जब इनके पास पूरी हुकूमत आ जायेगी, तब यह क्या करेंगे।
* मास्टर तारा सिंघ ने नार्थ वेस्टर्न फ्रंटियर प्रोविंस और पंजाब के मुस्लिम मेजोरिटी वाले इलाक़ों के हिन्दुओं और सिखों को जितनी जल्दी हो सके, रावी दरिया पार करने के लिये कहना शुरू कर दिया। दूर-दूर के इलाकों में ऐसे संदेश भेजे गये। जुलाई के महीने तक हिन्दू और सिख बड़ी तादाद में रावी दरिया पार करके ईस्ट पंजाब में दाख़िल होने लगे।
* लाखों हिन्दू सिख refugees के crises के चलते 6 अगस्त 1947 को गान्धी जी लाहौर पहुँचे। गाँधी जी ने कांग्रेस वर्कर्स से ख़िताब करते हुये हिन्दुओं और सिखों को लाहौर छोड़कर न जाने को कहा। अमन-शान्ति का उपदेश देकर गान्धी जी 6 अगस्त की शाम को ही लाहौर से पटना के लिये रवाना हो गये।
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* उस दौर में कितने लोग मरे और कितनी औरतों और बच्चों को अग़वा किया गया, इसके बारे में कभी भी पूरा-पूरा पता नहीं चल सकता। जिन्होंने भी डेटा इकट्ठा किया है, उनको शाबाशी है, लेकिन वो सब डेटा असल तादाद का एक छोटा-सा हिस्सा ही है।
* मेरे बुज़ुर्गों ने वो सब ज़ुल्म ख़ुद भी बर्दाश्त किये और अपनी आँखों से औरों को भी ज़ुल्म का शिकार होते देखा। उनकी बताई बातें मेरे लिये सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द हैं। कई बुज़ुर्ग रिश्तेदारों से उस दौर के क़त्लेआम का आप-बीता हाल सुनता रहा हूँ। उनमें से कुछ बातों का ज़िक्र मैंने अपनी पहले की वीडिओज़ में किया है और कुछ का ज़िक्र आगे आने वाली वीडिओज़ में करूँगा।
* मैंने अपना टॉपिक सिर्फ़ हिन्दू सिख क़त्लेआम तक ही महदूद नहीं रखा। और न ही मेरा टॉपिक 1947 के वाक़्यात तक ही महदूद है। मैंने 1947 से बाद के हालात, 1971 में बांग्लादेश में क़त्लेआम, और आज के दौर में भी भारत में आ रहे हिन्दू और सिख refugees की भी बात करनी है। इन सब वाक़्यात का सीधा ताल्लुक़ पाकिस्तान की स्थापना, क़याम ए पाकिस्तान से ही है।
* 4 मार्च, 1947 को लाहौर के हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स ने पंजाब में मुस्लिम लीग की मिनिस्ट्री बनाये जाने की कोशिशों के ख़िलाफ़ एक जलूस निकाला। नारे लगाते हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स का यह जलूस लाहौर के पुराने शहर के अन्दर चौक मत्ती पहुँचा, तो मुस्लिग लीग के हिमायती लोगों ने इनका विरोध किया। दोनों तरफ़ के लोग आपस मे टकरा गये। इस फ़साद में कुल 8 लोग मारे गये, जिसमें ज़्यादातर हिन्दू और सिख थे।
* लाहौर के डी ए वी कॉलेज के स्टूडेंट्स के साथ पुलिस की एक झड़प कॉलेज के होस्टल के बाहर भी हुई। पुलिस ने गोली चलाई, जिससे एक स्टूडेंट की मौत हो गयी।
* 5 मार्च को जब मुल्तान में हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स ने जलूस निकाला, तो उनपर ज़बरदस्त हमला कर दिया गया। कई हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स मारे गये। हमलावर यहीं नहीं रुके। उन्होंने शहर के कई हिस्सों में हिन्दुओं और सिखों पर हमले किये। सिर्फ़ इस एक दिन में ही मुल्तान में 300 के क़रीब हिन्दू और सिख क़त्ल कर दिये गये और 500 से भी ज़्यादा ज़ख़्मी हुये।
* 5 मार्च को रावलपिण्डी में भी हिन्दुओं और सिखों ने जलूस निकाला। मार्च 1947 में हिन्दुओं और सिखों का सबसे खूंखार, सबसे बड़ा क़त्लेआम रावलपिण्डी डिवीज़न में ही हुआ था। 5 मार्च से शुरू हुये उस क़त्लेआम में अगले कुछ दिनों में ही 7000 से ज़्यादा हिन्दू और सिखों को क़त्ल कर दिया गया था। इन कुछ दिनों में ही 4000 से भी ज़्यादा हिन्दू और सिख औरतों को गुंडों की भीड़ें उठा कर ले गईं थीं।
* पंजाब की पुलिस में कुल 24,095 पुलिस कॉन्स्टेबल्स थे। इनमें से 17,848 मुसलमान ही थे। इस तरह पंजाब में 74 फ़ीसद कॉन्स्टेबल्स मुसलमान ही थे। हिन्दू और सिख कॉन्स्टेबल्स की तादाद सिर्फ़ 6167 थी। इसके इलावा 80 लोग या तो यूरोपीयन थे, या एंग्लो-इण्डियन।
* 1941 में पूरे लाहौर ज़िले की 1695375 की आबादी में मुसलमानों की आबादी 1027772 थी। यह 60 फ़ीसद से कुछ ज़्यादा बनती है। जबकि लाहौर शहर की 6,44,403 की पापुलेशन में 4,33,170 मुसलमान थे, 1,77,212 हिन्दू थे, और सिर्फ़ 34,021 सिख थे। इस तरह, लाहौर शहर में मुस्लिम आबादी लगभग 67 फ़ीसद थी। हिन्दू 27 फ़ीसद और सिख महज़ 5 फ़ीसद के लगभग थे।
* लेकिन लाहौर में जायदाद, इंडस्ट्री, एजुकेशनल और कल्चरल इंस्टीट्यूशन्स ज़्यादा हिन्दुओं के ही थे। सिखों का भी इसमें काफ़ी हिस्सा था। ऐसा होना कुछ अजीब भी नहीं था, क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत से पहले लाहौर 40 साल तक सिख राज की राजधानी रहा था। सिख राज की राजधानी रही होने की वजह से सिख इस शहर पर अपना ख़ास हक़ समझते थे।
* 6 मार्च को अमृतसर जा रही रेल गाड़ी को शरीफ़पूरा के नज़दीक रोककर इसमें बैठे कुछ हिन्दुओं और सिखों को क़त्ल कर दिया गया।
* इसके बाद छुरेबाज़ी की वारदातें होने लगीं। कोई अकेला हिन्दू या सिख गुण्डों को कहीं मिल जाता, तो उसको चाकू मार दिया जाता। हिन्दुओं और सिखों के घरों को जलाने की वारदातें आम हो गईं। छुरेबाज़ी और आगज़नी की ऐसी वारदातें अगस्त और सितम्बर तक चलती रहीं, जब तक कि सारा लाहौर ज़िला हिन्दुओं और सिखों से लगभग ख़ाली न हो गया था।
* मेरे दादाजी ने मुझे बताया था कि उस दौर में हिन्दू और मुसलमान में देखकर फ़र्क़ करना कई बार आसान नहीं होता था। अगर किसी हिन्दू ने तिलक नहीं लगाया या उसके पहरावे से उसकी पहचान नहीं हो रही होती, तो शक होने पर गुण्डे उसको नँगा करके यह देखते कि इसकी सुन्नत हुई है कि नहीं। जब वो देख लेते कि यह हिन्दू है, तो उसको मार दिया जाता।
* लाहौर में साईकल पर आ रहे एक आदमी को रोक कर पहले यह देखा कि वो हिन्दू है कि नहीं। जब यह तय हो गया कि वो हिन्दू है, तो उसके गले को छुरे से आहिस्ता-आहिस्ता काट कर बड़ी बेरहमी से उसको तड़पा-तड़पा कर क़त्ल कर दिया गया।
* लाहौर में मई के महीने में हिन्दुओं और सिखों पर हमलों में एक दम तेज़ी आयी। अब हमले सिर्फ़ छुरेबाज़ी तक ही महदूद नहीं थे, बल्कि अब हमलावरों के पास बंदूकें भी आ चुकी थीं। अब 8-10 गुण्डों का गिरोह न होकर सैंकड़ों और हज़ारों की हमलावर भीड़ें थीं।
* 18 मई को लाहौर के मुस्लिम मेजोरिटी वाले इलाके मोज़नग में गुण्डों की भीड़ ने हिन्दुओं और सिखों के कई घरों में आग लगा दी। ग्रैंड ट्रंक रोड पर सिख नेशनल कॉलेज के सामने की तरफ़ के कई बंगलों को आग लगा दी गई, जो हिन्दुओं और सिखों के थे। अकबरी मंडी में हिन्दुओं के कई घर जला दिये गये। ग़रीब हिन्दू मज़दूरों की झुग्गियों को जला दिया गया। मस्ती गली एरिया में एक हिन्दू मन्दिर को भी आग लगा दी गई। शाही मस्जिद के नज़दीक शाही मुहल्ले में एक आदमी को क़त्ल करके उसके जिस्म पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी।
* सिखों की आबादी वाले सिंघपुरा में कई बार हमले कर के कई सिखों को गोलियों से क़त्ल किया गया। भारत नगर में हिन्दुओं के कई घरों को आग लगा दी गई। आग से बचने के लिये बाहर निकले हिन्दुओं को छुरे मार कर क़त्ल और ज़ख़्मी किया गया।
* मास्टर तारा सिंघ की रहनुमाई में अकाली दल ने पंजाब के बटवारे की माँग ज़ोरदार तरीके से उठाई। पंजाब के हिन्दू और सिख MLAs की तरफ़ से बटवारे पर फ़ैसला लेने के लिये 23 जून की तारीख़ रखी गई। 23 जून से पहले ही हिन्दुओं और सिखों को लाहौर से भगाने के लिये जून में ख़ास तौर पर हमले तेज़ कर दिये गये।
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* पिछली वीडियो में मैंने पंजाब में फ़रवरी 1947 तक हालात बहुत बिगड़ने की बात कही थी। एक भाई ने मुझसे कहा है कि एक तरफ़ मैंने एक वीडियो में कहा है कि 3 मार्च 1947 तक पंजाब में क़त्लेआम शुरू नहीं हुआ था और दूसरी तरफ़ मैं कह रहा हूँ कि पंजाब में फ़रवरी 1947 तक हालात बहुत बिगड़ गये थे। यह भाई साहिब कहते हैं कि मेरा ऐसा कहना कंट्राडिक्शन है।
* क़त्लेआम का मतलब है बड़े पैमाने पर लोगों के क़त्ल होना। क़त्लेआम का मतलब है, जब लोगों के क़त्ल होना आम हो जाये। लोगों को बड़े पैमाने पर शरेआम क़त्ल कर देने को क़त्लेआम कहा जाता है। लोगों के दो अलग-अलग गुट, दो अलग-अलग गिरोह आपस में लड़ें, कुछ लोग ज़ख़्मी हो जायें, तो इसको दंगा कहा जाता है, फ़साद कहा जाता है। अगर ऐसे किसी फ़साद में कुछ लोग मर भी जायें, तो इसको दंगा-फ़साद ही कहा जाता है।
* जैसे, 24 फ़रवरी, 1947 को अमृतसर साहिब में मुस्लिम लीग की agitation के चलते एक भीड़ ने एक सिख पुलिस कांस्टेबल को पीट-पीट कर जान से मार डाला और मुसलमान मजिस्ट्रेट को बुरी तरह से ज़ख़्मी कर दिया था। एक मुसलमान आदमी पुलिस फायरिंग में मारा गया था। कई और पुलिस वाले भी ज़ख़्मी हुये थे। मेरी नज़र में यह एक फ़साद था। क्या इसको क़त्लेआम कहा जा सकता है? बिल्कुल नहीं।
* जब मैंने यह कहा कि फ़रवरी, 1947 तक हालात बहुत बिगड़ गये, तो मैंने यह भी कहा कि आख़िर 2 मार्च, 1947 को ख़िज़्र हयात टिवाणा ने मुस्लिम लीग की सख़्त मुख़ालफ़त के चलते अपनी मिनिस्ट्री का इस्तीफ़ा दे दिया। यहाँ हालात बिगड़ने से मेरा मतलब यूनियनिस्ट colitition मिनिस्ट्री के ख़िलाफ़ मुस्लिम लीग की agitation से बिगड़े हालात से ही था, जिस दौरान अलग-अलग शहरों में जलूस निकाले गये, पुलिस फायरिंग हुई, कई जगहों पर पुलिस ने छापेमारी की, मुस्लिम लीग के कई लोगों को ग़िरफ़्तार किया।
* इस वक़्त तक हालात ऐसे नहीं थे कि वेस्ट पंजाब से हिन्दुओं-सिखों को और ईस्ट पंजाब से मुसलमानों को मार भगाया जाने लगा हो। उम्मीद करता हूँ कि मेरी कही बातें अब साफ़-स्पष्ट हो गई होंगी।
* पंजाब सरकार ने मुस्लिम लीग की agitation के violent elements को दबाने के लिये मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड्स पर पाबन्दी लगा दी। यह पाबन्दी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी लगा दी गई। शुक्रवार, 24 जनवरी, 1947 को लगभग एक ही वक़्त लाहौर में इन दोनों organisations के दफ़्तरों पर पुलिस ने छापेमारी की। कुछ के घरों पर भी छापे मारे गये।
* फ़रवरी के महीने में रावलपिण्डी में मुस्लिम लीग के एक demonstration के violent हो जाने के बाद पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी। लाहौर में डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स में घुसकर मुस्लिम लीग के हिमायती स्टूडेंट्स ने फाइलों को बिखेर दिया और खिड़कियों के शीशे तोड़ दिये। औरतों और बच्चों ने लाहौर के कई हिस्सों में ट्रैफिक जाम कर दिया। पूरे शहर में इस तरह के हंगामे के बीच एक जलूस निकाला गया। पुलिस ने इस पर लाठीचार्ज कर के इनको खदेड़ दिया।
* फ़रवरी के आख़िर में पंजाब सरकार के साथ बातचीत के बाद मुस्लिम लीग ने अपनी agitation ख़त्म कर दी। 2 मार्च 1947 को ख़िज़्र हयात टिवाणा ने इस्तीफ़ा दे दिया। टिवाणा के इस्तीफ़ा देने पर जिन्नाह ने कहा था कि अब पाकिस्तान बना ही बना और अब कोई रुकावट नहीं है।
* 1944 में गांधी जी और जिन्नाह साहिब की मीटिंग के बाद यह साफ़ लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी में भी लोग अब अलग पाकिस्तान बनाने के लिये तैयार थे। अगर पाकिस्तान बनाना कांग्रेस को भी मन्ज़ूर है, तो फिर मुसलमान मुस्लिम लीग का विरोध भी क्यों करें? जिस मुस्लिम लीग का 1937 में पंजाब असेम्बली में एक ही मेम्बर था, 1946 के इलेक्शन्स में उसके 75 मेम्बरज़ हो गये।
* 1937 में बनी यूनियनिस्ट पार्टी की मेजोरिटी मिनिस्ट्री का ग़ैरज़रूरी विरोध अगर नेहरू जी और कांग्रेस पार्टी न करती, तो 1937 में सिकन्दर-जिन्नाह पैक्ट न होता। अगर सिकन्दर-जिन्नाह पैक्ट न होता, तो मुस्लिम लीग पंजाब में इतनी कामयाब न होती।
* 3 मार्च, 1947 का दिन वह दिन था, जिसने यह तय कर दिया था कि पंजाब में पाकिस्तान मूवमेंट के सबसे बड़े दुश्मन सिख थे। यह वो दिन था, जिसने यह तय कर दिया था कि मुस्लिम लीग, मुस्लिम नेशनल गार्ड्स, मुस्लिम पुलिस, और मुस्लिम फ़ौज का ख़ास निशाना सिख ही होंगे।
* 3 मार्च, 1947 को लाहौर में असेम्बली हाल के बाहर जोश से भरे हज़ारों की तादाद में पाकिस्तान के हिमायती मुसलमान इकट्ठे हुये। ऐसा कहा जाता है कि उनकी तादाद 50 हज़ार से भी ज़्यादा थी। ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ और ‘अल्लाह हु अकबर’ के नारों से आसमान गूँज रहा था। असेम्बली हाल पर पाकिस्तान का झण्डा फहराया जा चुका था। ऐसे लगता था, जैसे आज पाकिस्तान बन ही गया हो।
* अकाली दल के रहनुमा मास्टर तारा सिंघ 400-500 अकालियों के साथ वहाँ पहुँचे। 50,000 की भीड़ के सामने अकाली दल के यह 400-500 सिख मास्टर तारा सिंघ के साथ खड़े थे।
* मास्टर तारा सिंघ असेम्बली हाल की सीढ़ियों पर चढ़े और ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगाये। जवाब में दूसरी तरफ़ से ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और ‘अल्लाह हु अकबर’ के नारे और बुलन्द होने लगे। माहौल बहुत तनाव वाला हो गया।
* देखते ही देखते ‘बोले सो निहाल, सति श्री अकाल’ के जयकारों के बीच मास्टर तारा सिंघ ने अपनी तलवार लहराई और पाकिस्तान के झंडे पर दे मारी। झण्डा नीचे गिर पड़ा। ‘अल्लाह हु अकबर’ के नारे लगाते पाकिस्तान के हिमायती आगे बढ़े और सिखों से भिड़ गये।
* अगले दिन, 4 मार्च, 1947 से सिखों और हिन्दुओं के क़त्लेआम का वो दौर शुरू होने वाला था, जिसके बारे में जानकर आने वाली नस्लें भी दहल जाया करेंगी।
* मुझे यह सवाल पूछा गया है कि क़याम-ए-पाकिस्तान पर, पाकिस्तान की स्थापना पर मैं वीडिओज़ क्यों बना रहा हूँ, जबकि मैं तो सिर्फ़ धर्म की बात करने वाला आदमी हूँ।
* पाकिस्तान की बुनियाद ही मज़हब के नाम पर रखी गई थी। धर्म जोड़ता है। सियासत तोड़ती है। लेकिन लोगों को एक-दूसरे से तोड़ने वाली सियासत ख़ुद मज़हब का या धर्म का नक़ाब पहन लेती है। अपने ही बाप को किले में क़ैद कर के, अपने ही भाइयों के क़त्ल करके तख़्त पर बैठा औरंगज़ेब सियासत है। अपने उसूलों पर क़ायम रहते हुये अपना सिर भी कटा देने वाला सरमद धर्म है।
* ऐसा क्यों है कि भारत में भी और पाकिस्तान में भी 1947 के क़त्लेआम के ज़िम्मेदार लोगों की निशानदेही करने से बचा जाता रहा है? आख़िर वो लोग कौन थे, जो बेगुनाहों के क़त्ल कर रहे थे? वो लोग कौन थे, जो अग़वा और बलात्कार कर रहे थे? जो लुटेरे थे, वो आख़िर कौन लोग थे? और सबसे ज़रूरी बात, आख़िर यह क़त्लेआम किये ही क्यों गये थे?
* तवारीख़ को इस लिये नहीं लिखा जाता कि दूसरों को इलज़ाम दिया जाये, बल्कि तवारीख़ तो इसलिये लिखी जाती है कि हम उससे कुछ सबक़ हासिल कर सकें। अगर तवारीख़ को ग़लत तरीके से लिखा जायेगा, तो ऐसी तवारीख़ से हासिल सबक़ भी ग़लत ही होंगे। ये ग़लत सबक़ हमें फिर से ग़लत राहों पर डाल देंगे।
* तवारीख़ के उस दौर में न नेहरू जी का कोई मरा, न जिन्नाह साहिब का। लेकिन जो तवारीख़ लिखी गई, वो या तो नेहरू वालों ने लिखी, या जिन्नाह वालों ने। जो मरे, जो लुटे, जो उजड़े, जो यतीम हुये, उनकी तवारीख़ तो अलग है। मैं तो इन्हीं मज़लूमों के नुक़्तानिगाह से बात करता हूँ। सियासत को दरकिनार करके, मज़हबी चश्मे को अपनी आँखों से हटा कर, कोई उन लाखों मज़लूमों को इन्सानियत के नज़रिये से भी तो समझे।
* जो लोग उस दौर में मुसलमानों को चुन-चुन कर मार रहे थे, उनके वारिसों में से अब किसी को हिन्दू अच्छे नहीं लगते, किसी को सिख अच्छे नहीं लगते। उस दौर में जो सिखों का क़त्लेआम कर रहे थे, उनके वारिस आज के सिख को समझा रहे हैं कि हिन्दू तुम पर ज़ुल्म कर रहा है। हिन्दू को कहा जा रहा है कि हर सिख खालिस्तानी है, हिन्दुओं का दुश्मन है। हिन्दुओं में कई और जोगिन्दर नाथ मण्डल पैदा करने की कोशिशें हो रही हैं।
* उन्हीं लोगों के वारिस ही तो हैं ये सब, जो ऐसा कर रहे हैं। नसल ही बदली है। उनकी रगों में बहती नफ़रत वही है। इनके पास भी मज़हबी जनून की वही आँखें हैं, जो इनके बड़ों के पास थीं। इनके लहू में बहती नफ़रत इन्हें ऐसा बना चुकी है कि यह मुहब्बत कर ही नहीं सकते। जिनको ज़हर अच्छा लगता है, उनको अमृत बुरा ही लगेगा।
उनका जो फ़र्ज़ है, वो अहल-ए-सियासत जानें,
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।
* पसाला गांव में सिखों और मुसलमानों की एक मीटिंग हुई। इसमें यह बात कही गई कि इलाके में अमन कायम रखा जाये, आपसी भाईचारा कायम रखा जाये। सभी सिख इस मीटिंग में हुई बातों से सहमत होकर अपने-अपने घरों की तरफ़ चले गये।
* लेकिन उसी वक़्त एक दूसरी मीटिंग बागण गांव में हो रही थी, जिसमें हमलावरों ने मीटिंग में शामिल लोगों को भड़काया कि इलाके के सभी सिखों को कत्ल कर दिया जाना चाहिए। बहुत लोगों ने वहां पर यह कसमें उठाई कि किसी भी सिख को ज़िन्दा नहीं छोड़ा जायेगा।
* भाटा गांव पर हज़ारों की तादाद में दंगाइयों ने हमला कर दिया। उन्होंने गांव को चारों तरफ़ से घेर कर सिखों के घरों में आग लगा दी। एक सिख प्रीतम सिंघ को हमलावरों ने उनके सीने में कई गोलियां मार कर उनको वहीं शहीद कर दिया। गोलियों की आवाज़ सुनकर एक बहुत बुजुर्ग सिख बाहर निकले, तो हमलावरों ने उन पर भी गोलियां चलाईं। उनकी भी वहीं शहादत हो गई। धर्म सिंघ, ग़रीब सिंघ और आसा सिंघ भी मुक़ाबला करते हुए गोलियों का निशाना बना दिए गये। एक सिख औरत भी गोलियों से ही शहीद हुई।
* अलग-अलग घरों में बंद 100 से भी ज़्यादा सिख चारों तरफ़ से आग में घिरे हुए थे। उनमें से कोई भी अगर बाहर निकलता था, तो गोलियों का निशाना बना दिया जाता था। भाटा गांव के इस क़त्ल-ए-आम में कुल 124 सिख शहीद हुये।
* भाटा में 124, सेहर गांव में 12, बडगर में 5, काला पानी गांव में 1, और जासा में 7 लोगों को क़त्ल किया गया। इस तरह इन गांवों में कुल 149 हिन्दुओं-सिखों के क़त्ल हुये।
* दिसम्बर 1946 के आख़िर और जनवरी 1947 की शुरुआत में हवेलियाँ और आस-पास के इलाकों में ऐसे हालात हो चुके थे कि हिन्दुओं और सिखों का वहाँ रुके रहना लगभग न-मुमकिन हो गया। लगभग सभी सिख और हिन्दू अपने घरों को छोड़कर या तो refugee camps में जा चुके थे, या वो हज़ारा ही छोड़कर पंजाब चले गये थे।
* कुछ महीनों के बाद कुछ हिन्दू और सिख हालात बदलने पर फिर वापिस अपने घरों को लौटे। उनको उम्मीद थी कि हालात पूरी तरह से सुधर जायेंगे। इन बदकिस्मत हिन्दुओं और सिखों के क़त्ल-ए-आम का एक और दौर अगस्त 1947 के आख़िर में फिर चला। गाँवों में रह रहे इका-दुका हिन्दुओं और सिखों को चुन-चुन कर बेरहमी से क़त्ल किया गया। उनको घरों को लूट लिया गया और जला दिया गया।
* पूरे हज़ारा में हिन्दुओं और सिखों के क़त्ल-ए-आम के सबसे खौफ़नाक वाकियात में से एक हरीपुर में 26 अगस्त, 1947 को हुआ था। हिन्दुओं और सिखों को उनके गले काटकर बहुत तड़पा-तड़पा कर क़त्ल किया गया। हिन्दू और सिख दुकानदारों के सिर काटकर उनकी दुकानों के बाहर टांग दिये गये।
* वाह के refugee camp से लगभग हर रोज़ या दो दिन छोड़कर तकरीबन 2 या 3 हज़ार हिन्दू-सिख refugees को निकाल कर ट्रेन के ज़रिये भारत भेजा जाने लगा। जो किस्मत वाले होते थे, वो ज़िन्दा ही भारत पहुँच जाते थे। बाक़ी रास्ते में ही दंगाइओं के हाथों मारे जाते।
* गांव कुटली के लगभग सभी हिंदू और सिख अपने घर छोड़कर अपना गांव छोड़कर घोड़ा गली चले गए। एक व्यक्ति तुलसाराम और एक औरत माता द्रोपदी को क़त्ल कर दिया गया। द्रौपदी की एक शादीशुदा बेटी भी थी, जिसको गुंडे अग़वा करके ले गये।
* इलाके के एक और गांव लोरा में कन्हैया सिंह, पण्डित गोपाल चन्द की बीवी श्रीमती छत्तो, और दलीप सिंघ का हमलावरों ने क़त्ल कर दिया।
* ख़ूबसूरत वादी में हरो नदी के किनारे एक गांव सतोड़ा बसा हुआ है। यहां तक़रीबन 55 हिन्दू और सिख ख़ानदान रहते थे। पुलिस ने हिंदू और सिक्खों परिवारों को घोड़ा गली पहुंचा दिया।
* एक और गाओं था, ओगल। बेलीराम इस्सर और उनका परिवार तीन दिन तक अपने गांव ओगल में ही छुपे रहे। जब यह बात किसी दूसरे गांव में रहने वाले उनके एक मुस्लमान दोस्त को पता चली, तो उसने ओगल पहुँच कर बेलीराम और उनके परिवार को वहां से निकालकर अपने घर में पनाह दी।
* तरोड, कमार बगला, नलोई और संधा की बस्तियों के हिंदुओं और सिखों ने संधा बस्ती के साथ वाली एक ऊंची पहाड़ी पर जा कर पनाह ले ली। जब सैकड़ों की तादाद में दंगाइयों ने इस पहाड़ी पर पनाह लिए बैठे हिंदुओं और सिखों पर हमला करने की कोशिश की, तो सिखों ने उनका मुकाबला करने के लिए फायरिंग की और तोबड़े से भी कुछ गोले दागे। इससे दंगाइयों में ख़ौफ़ पैदा हो गया और उन्होंने पहाड़ी के ऊपर पनाह लिए बैठे हिंदुओं और सिखों के नज़दीक जाने की हिम्मत नहीं की। इन घिरे हुये सभी हिन्दुओं और सिखों को पुलिस की मदद से वहां से निकाल कर काकुल के रिफ्यूजी कैम्प में पहुंचाया गया।
* उस वक़्त की तहसील हरिपुर में एक गांव छजियां पर हमला करके हमलावरों ने हिन्दुओं और सिखों को मारना शुरू किया। अपनी जानें बचाने के लिए कोई 35 से 40 के बीच लोग एक घर के अंदर इकट्ठे हो गये। हमलावरों ने इस घर को चारों तरफ़ से आग लगा दी, जिससे यह सभी लोग, जिनकी तादाद 35 से 40 के बीच में थी, ज़िन्दा ही जल कर मर गये।
* तहसील के ही एक और गांव खाँनपुर के तीन लोग अपने काम के सिलसिले में तहसील दफ़्तर में आए हुये थे। ये तीनों बदकिस्मत दंगाइयों के हाथ आ गए और उनको बहुत बेरहमी से हरिपुर में ही क़त्ल कर दिया गया।
* ओगी के बाज़ार पर हमला करके दंगाइयों ने पहले हिन्दुओं और सिखों की दुकानों को आग लगा दी और उसके बाद 5 हिन्दुओं और सिखों को क़त्ल कर दिया।
* कुछ हिन्दुओं और सिखों को उनको गांवों से निकालकर सुम इलाही मुंग में ठहराया गया था। दंगाइयों ने सुम इलाही मुंग पर हमला करके इनमें से 14 हिन्दुओं और सिखों को क़त्ल कर दिया। 27 हिन्दू और सिख इस हमले में ज़ख़्मी हुये।
* जल्लो गांव में भी हिन्दुओं और सिखों के क़त्ल हुये। गुरुद्वारा साहिब को आग लगा दी गयी।
* 26 दिसंबर 1946 को 3 सिखों का क़त्ल हुआ। काहन सिंह और लहणा सिंह दोनों जीजा-साला थे। वो काहन सिंघ की 9-10 साल की बेटी बलबीर कौर को उसके ससुराल गांव धराड़ी से उसके मायके के गांव धणकां लेकर जा रहे थे। धणकां पहुंचने से पहले ही रास्ते में 13-14 लोगों की एक भीड़ ने तेज़दार हथियारों से उनको बेरहमी से क़त्ल कर दिया। पहले काहन सिंह और लहणा सिंह को क़त्ल किया गया। अपने बाप का क़त्ल होते देख बच्ची डर से चीखने लगी, तो गुण्डों ने पहले उसके पेट में बरछी मारी और फिर एक छुरी से उसका गला काट दिया।
* 1 जनवरी 1947 को सैंकड़ों हमलावरों ने मोहरी वडभैंन गांव पर दुपहर के वक़्त हमला बोल दिया। हमले के वक़्त मोहरी वडभैंन में लगभग 350 हिंदू और सिख मौजूद थे। जैसे ही गांव पर हमला शुरू हुआ, हिंदू और सिख अपनी हिफ़ाज़त के लिये अपने घरों को छोड़कर गांव के गुरुद्वारे में आ गये। जब रात हुई और अंधेरा गहरा हो गया, तो सर्दी की वजह से हमलावर गुरुद्वारे से दूर होकर बैठ गये। गुरुद्वारे के अंदर घिरे हुए सभी लोगों ने फ़ैसला किया कि अब गांव छोड़कर जाना ही होगा, क्योंकि अब गांव में रहना महफ़ूज़ नहीं है। वो सभी लोग
चुपचाप गुरुद्वारे से बाहर निकले और अपने जलते हुए घरों को बेबसी से देखते हुये गांव से निकलने लगे। रात के अंधेरे में जब कि बहुत सर्दी पड़ रही थी, यह 350 के लगभग हिंदू और सिक्खों का काफ़िला चुपचाप, बिना आवाज़ किए मोहरी वडभैंन से निकला और हवेलियां की तरफ़ बढ़ने लगा।
* मोहरी वडभैंन पर हमले के समय जो लोग फुर्ती से अपने घरों को छोड़कर गुरुद्वारा साहिब में पहुंच गये, वो सभी बच गये। लेकिन ऐसे भी लोग थे, जो अपने घरों से निकल नहीं सके, या, जो अपने घरों से निकले तो सही, लेकिन गुरुद्वारे तक नहीं पहुंच पाये। इनमें से शेर सिंह, मेहताब सिंह, ज्ञान सिंघ, गुलाब सिंह और उनका परिवार मोहरी वडभैंन गांव में ही हमलावरों के हाथों मारे गये।
* उसी दिन, यानी 1 जनवरी 1947 को ही अखरूटा गांव पर भी हमला किया गया। इस गांव में सिखों और हिंदुओं के 80 घर थे। गोकुल सिंह की गोलियां लगने से मौत हो गई। गुलाब सिंह और उनकी बीवी, रंगील सिंह की बेटी, एक और औरत श्रीमती लीलावंती समेत कुल 6 हिन्दू और सिख अखरूटा गांव पर हुये हमले में मारे गये। एक 9-10 साल की बच्ची को गुण्डे उठा कर ले गये।
* गांवों में हिन्दुओं और सिखों पर हमलों की ख़बरें सुनकर हमारे गांव मुहाड़ी के सभी हिन्दु और सिख आपस में सलाह करने लगे। सभी ने मिलकर फ़ैसला किया कि गांव को छोड़ देना ही सही है। हमारे गांव के सभी हिन्दू और सिख पहली और दूसरी जनवरी के बीच की रात को चुपचाप अपने घरों से निकले और मुहाड़ी को अलविदा कह दी।
* धणकां-कड़छाँ के हिन्दू और सिख भी पहली और दूसरी जनवरी के बीच की रात को अपने गांव को छोड़ कर हवेलियाँ की तरफ़ चल दिये। जब धणकां गांव पर हमला हुआ, तो उस वक़्त काला सिंघ और रवेल सिंघ उस गांव में थे। इनके पास एक राइफल और एक पिस्टल थी। कुछ घण्टों तक दोनों तरफ से फायरिंग होती रही। आख़िर काला सिंह गोलियां लगने से शहीद हो गये। रवेल सिंह किसी तरह से धणकां से निकलकर हमारे गांव मुहाड़ी में पहुंच गये। जब हमारे गांव मुहाड़ी पर हमला हुआ, उस वक़्त वहां सिर्फ़ एक ही सिख रवेल सिंह मौजूद थे, जो के घर के अंदर बंद हुए बैठे थे। हमलावरों ने जब यह जाना कि इस घर के अंदर एक सिख बंद है, तो उन्होंने घर को आग लगा दी। हमारे मुहाड़ी में उसी घर के अंदर रवेल सिंह जिंदा ही जला दिये गये।
* 1 जनवरी को ही जाबा गांव पर हमला किया गया। गांव में हिंदू और सिख परिवारों में उस वक्त ज़्यादातर बूढ़े मर्द औरतें और बच्चे थे। हिंदुओं सिखों के बुजुर्गों ने देखा कि अब संभलने का वक्त नहीं था। उन्होंने अपने घरों को खुला ही छोड़ कर औरतों और बच्चों समेत गांव के पास ही एक पहाड़ी चोटी पर जाकर मोर्चा संभाल लिया। जब गांव पर हमला हुआ, तो खुले पड़े घरों को हमलावरों ने लूट लिया। हिंदू और सिख परिवार रात होने तक उसी पहाड़ी चोटी पर टिके रहे। जब रात हुई, तो वह वहां से निकले और चलते चलते पीपला गांव में पहुंच गये। पीपला गांव में कई सिख परिवार रहते थे। अब पीपला गांव के सिख परिवार और जाबा से आए हिंदू और सिख परिवार इकट्ठे होकर रात के अंधेरे में ही हवेलियां की तरफ़ चल पड़े।