अभी एक गुड़िया की कॉल आई। बातों-बातों में वह कहने लगी कि अगर हम कहीं यात्रा कर रहे हों, और रेलगाड़ी में एक साधु, एक पुलिसकर्मी, और एक चोर हो, तो हम चोर के साथ बैठना पसन्द करते हैं। हमारे मन में ऐसा भय बैठ चुका है साधुओं के प्रति, इतनी सारी ख़बरें पढ़-सुन कर।
मैं उसकी बात सुनकर हँस पड़ा। उसकी बात बहुत गम्भीर थी, पर मुझे तसल्ली भी हुई कि यह गुड़िया मुझ से इतनी सहज तो है कि ऐसी बात बड़े आराम से मुझसे कह सके। बिल्कुल वैसे ही, जैसे बेटियाँ अपने पिता से कोई भी बात बिना भय के कह सकें। साधुओं को भी ‘बाबा’ इसी लिये कहा जाता है। फ़ारसी भाषा में ‘बाबा’ का अर्थ ही ‘पिता’ होता है।
चोर वाली बात से मुझे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। मेरा एक क़रीबी रिश्तेदार चंडीगढ़ में एक कोर्ट केस में फंस गया, जहाँ उसे ज़मानत की ज़रूरत थी। मैंने उसकी ज़मानत दे दी। कुछ समय बाद वह बेल जम्प (bail jump) कर गया, तो कोर्ट की तरफ़ से मुझे सम्मन आने लग गये। आख़िर मुझे वकील हायर (hire) कर के कोर्ट में पेश होना पड़ा।
एक पेशी के दिन बरसात हो रही थी। मैं छाता लेकर कोर्ट में गया और अदालत के बाहर अपने केस की आवाज़ लगने का इन्तज़ार करने लगा। मेरे साथ एक व्यक्ति बैठा था। मेरी उससे बातचीत शुरू हो गई। उस ने बताया कि वह प्रोफैशनल चोर है और एक क्रिमिनल केस में पेशी भुगतने आया था।
जब मेरे वाले केस की आवाज़ लगी, तो मैं अपना छाता उसी चोर को पकड़ा कर अदालत के अन्दर चला गया। पेशी के दौरान मेरे ज़िहन में यही ख़्याल आता रहा कि मैं अपना छाता एक चोर को पकड़ा कर आया हूँ और अब मुझे मेरा छाता वापस नहीं मिलेगा।
पेशी के बाद मैं अदालत से बाहर निकला, तो वह मेरे छाते को पकड़ कर वहीं बैठा हुआ था। उसने मुझे मेरा छाता वापस दिया और फिर मुझे मेरे केस की अपडेट पूछने लगा।
फिर मैंने उसे कहा, “आप को भी आप के केस में बहुत परेशानियों को झेलना पड़ रहा है।”
उसने उत्तर दिया, “जदों कुक्कड़ मैं खाधे हन, तां बाँगां वी हुण मैनूं ही देणिआं पैणिआं हन।” (जब मुर्ग़े मैंने खाये हैं, तो बाँग भी अब मुझे ही देनी पड़ेगी)।
कई व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो दूसरे लोगों को शारीरिक या मौखिक हिंसा से भयभीत करते रहते हैं। यह भी स्वाभाविक है कि दूसरों के विरुद्ध हिंसा करने वालों के शत्रु भी बन ही जाते हैं। हिंसा से हिंसा पैदा होती ही है। दूसरों के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग करने वाले हमेशा ही जवाबी हिंसा से भयभीत रहते हैं, चाहे वे अपने भय को छुपा कर ही रखें।
दूसरी तरफ़, ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो सभी को प्रेम करने वाले होते हैं। वे प्रेम के ऐसे पुजारी होते हैं कि अपने विरोधियों का भी बुरा नहीं करते।
सभी को प्रेम करने वाले व्यक्तियों के बारे में यह पूरी तरह से निश्चित है कि उनको भी प्रेम करने वाले लोगों की कमी नहीं होती। उनके प्रेम के जवाब में उनको भी अनेक लोगों से प्रेम मिलता है। अगर हिंसा से हिंसा पैदा होती है, तो प्रेम से प्रेम पैदा होता है।
हर व्यक्ति के पास हिंसा करने का भी विकल्प है और प्रेम करने का भी। वह जो भी विकल्प चुनना चाहे, चुन सकता है। जो भी विकल्प वह चुनेगा, बदले में उस को भी वही कुछ मिलना है।
अक्सर ऐसा होता है कि जिन को बोलना नहीं चाहिए, वे बहुत बोलते हैं। ऐसी जगह भी बोलने से रुकते नहीं, जहाँ उन्हें मौन होकर सिर्फ़ सुनना ही चाहिए। कोई सत्पुरुष कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा हो, वहाँ भी ऐसे लोग कुछ अनावश्यक बात कर के सत्पुरुष को ही चुप रहने पर मजबूर कर देते हैं।
एक दूसरी स्थिति भी है। जिनके पास बहुत कुछ है बताने के लिये, जो ज्ञानीजन हैं, जो प्रभु-प्रेमी हैं, जो सर्वहितैषी हैं; वे बोलते ही नहीं हैं। बोलें भी, तो बहुत कम बोलते हैं।
भाई गुरदास जी लिखते हैं:-
बिनु रस रसना बकत जी बहुत बातै
प्रेम रस बसि भए मोनि ब्रत लीन है।
(भाई गुरदास जी, कबित 65)।
(जब जीवन में प्रेम का) रस नहीं (था, तो) जीभ बहुत बातें कहती थी। (अब जीभ) प्रेम-रस के वश में होकर मौनव्रत में लीन हो गई है।
बोलना तभी चाहिए, जब हृदय में प्रेम हो। क्रोध में क्या बोलना? नफ़रत में क्या बोलना? ईर्ष्या में क्या बोलना? लालच में क्या बोलना? भाई, बोलना ही है, तो प्रेम में बोलिये, प्रेम से बोलिये।
पर होता यह है कि ज़बान में रस नहीं, अर्थात वाणी मधुर नहीं, फिर भी बहुत बोलता है, बहुत बातें करता है। बिना मतलब ही बोलता रहता है।
दूसरी ओर, जो प्रेम-रस के वशीभूत हो गये, वे तो मौन ही रहने लगे। उन को प्रेम-रस के आगे संसारी बातों का रस अत्यंत फीका लगने लगा। व्यर्थ की बातें करके प्रेम-रस से वंचित रहना ही क्यों?
कल 23 नवम्बर, 2017 को पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने पोठोहार के इलाके के प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ कटास राज मन्दिर परिसर में स्थित सरोवर की उचित संभाल न कर पाने के लिये सरकार को लताड़ लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार को कहा है कि एक हफ़्ते के अन्दर-अन्दर कटासराज मन्दिर के सरोवर को पानी से भरा जाये, चाहे यह पानी मशकों में ही भर-भर के लाना पड़े।
पाकिस्तानी पंजाब के ज़िला चकवाल में स्थित कटासराज मन्दिर परिसर कटास सरोवर के इर्दगिर्द बने मन्दिरों का समूह है। ऐसा विश्वास है कि यह सरोवर मूलतः शिवजी के आँसुओं से बना था, जब वह अपनी पत्नी सती की मृत्यु पर दुःखी थे।
पोठोहारी हिन्दू परम्परा के अनुसार इसी सरोवर के किनारे पाण्डव युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों के उत्तर दिये थे। परम्परा से चले आ रहे विश्वास के अनुसार मुख्य मन्दिर की आधारशिला श्री कृष्ण भगवान ने रखी थी।
वर्तमान मन्दिर परिसर का निर्माण हिन्दूशाही राज के दौरान सातवीं शताब्दी में हुआ था। तब से लेकर अगस्त 1947 तक यह शैव पन्थ का पोठोहार में केन्द्र रहा है। यहाँ का शिवरात्रि का मेला पोठोहार से बाहर तक के इलाक़ों में मशहूर था।
मार्च, 1947 में पोठोहार के हिन्दू-सिख क़त्लेआम के बाद पूरे पोठोहार से हिन्दू-सिखों का पलायन शुरू हो गया था। अगस्त के महीने तक लगभग सभी हिन्दू, सिख पोठोहार छोड़कर भारत चले गये। 15 अगस्त, 1947 को कटासराज मन्दिर परिसर पर दंगाइयों ने हमला करके मन्दिरों में तोड़फोड़ की और मूर्तियों को बाहर फेंक दिया था।
पिछले कुछ सालों से मन्दिर परिसर में धार्मिक गतिविधियाँ फिर से शुरू हुई हैं। पाकिस्तान की सरकार ने परिसर के विकास के लिये कुछ धन ख़र्च किया है। भारत से धार्मिक मूर्तियाँ लाकर यहाँ स्थापित की गयीं हैं।
नज़दीक की सीमेंट फैक्ट्रियों के द्वारा धरती से पानी निकालते रहने की वजह से ज़मीनदोज़ (अंडरग्राउंड) पानी की कमी के चलते सरोवर का पानी भी सूखने लगा है।
अख़बारों में सरोवर के पानी के सूखने की ख़बरों के बाद सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस मियां साकिब निसार ने यह मुद्दा उठाया और कहा कि यह मन्दिर सिर्फ़ हिन्दुओं के लिये ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि पाकिस्तान की क़ौमी विरासत का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के हक़ों की हिफ़ाज़त के लिये अदालत किसी भी हद तक जा सकती है। मामले की पड़ताल के लिये उन्होंने एक कमेटी का गठन किये जाने का भी हुक्म दिया।
व्यक्तिगत तौर पर मेरी राय है कि पाकिस्तान की सरकार को चाहिये कि धार्मिक यात्राओं के लिये भारत के हिन्दुओं और सिखों को खुले दिल से वीज़ा दे। जैसे पाकिस्तान के गुरुद्वारों के लिये प्रबन्धक समिति बनाई गई है, इसी तरह से हिन्दू मन्दिरों के लिये भी समिति बनाई जाये। भारत और दूसरे देशों के हिन्दू उस समिति को दान दें।
धार्मिक यात्रा के लिये सरकारी मन्ज़ूरी वाले जत्थे का हिस्सा बनने की शर्त नहीं होनी चाहिये, बल्कि किसी भी ऐसे हिन्दू और सिख परिवार को फौरन 15 दिन का वीज़ा दिया जाना चाहिये, जो धार्मिक उद्देश्य से पाकिस्तान जाना चाहते हैं।
मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* दिल चाहता है कि कोई मर्सिया लिखूँ। दूर किसी उजाड़ में बैठ कर अपना लिखा मर्सिया धीरे-धीरे से गाऊँ मैं। जब भी कभी मर्सिया लिखने बैठता हूँ, लिख नहीं पाता। लफ़्ज़ ही नहीं मिलते।
* कभी-कभी हो जाता है कि अल्फ़ाज़ हमसे बेवफ़ाई कर जाते हैं। हम कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन लफ़्ज़ साथ नहीं देते। कुछ बातें इतनी बड़ी होती हैं कि डिक्शनरी भी छोटी लगने लगती है। कुछ दर्द इतने भारी होते हैं कि सारे लफ़्ज़ मिलकर भी उन दर्दों का भार बर्दाश्त नहीं कर सकते।
* दर्द ने कितनों को गूँगा बना दिया। दर्द ने कितनों की आखों से इतने आँसू बहाये कि वो आँखें बन्जर ज़मीन की तरह हो गईं, जिसमें फिर कोई ख़्वाब नहीं उगा। दर्द ने कितनों की ज़िन्दगी को इतना बोझल बना दिया कि जीना भी एक लम्बी सज़ा हो गया।
* जब ज़ुबान साथ न दे, तो बस आँखों से ही बोलना सीखना पड़ता है। जब दूसरा अपना दर्द बयान न कर सके, तो उसके चेहरे से ही पढ़ लेने का हुनर सीखना पड़ता है। जानवर कहाँ बोल पाते हैं हमारी बोली? फिर भी हम कुछ न कुछ तो समझने की कोशिश करते ही हैं उनके दर्द को। फिर ऐसा क्यों कि हम अपने ही उन लोगों के दर्द को समझ नहीं पाते, जो 1947 में मज़हब का नक़ाब पहने बैठी सियासत के हाथों बर्बाद हो गये? वो गूंगे हो गये थे अपना दर्द बयान करते-करते। जिनकी खुशियों को सियासी ताक़त के भूखे भेड़िये खा गये थे, वो ख़ुद रोटी-रोटी को मोहताज हो गये थे। जिनकी नन्हीं नाज़ुक कलियों-सी बच्चियों को हैवान खा गये थे, उनमें इतनी हिम्मत ही कहाँ बची थी कि कुछ बता पाते। और उनके बिना बताये ही उनकी बात समझने वाले भी तब कहाँ मिलते?
* अब तो 70 साल हो गये। बहुत वक़्त बीत चुका। चलो, अब तो मैं उनका मर्सिया गा लूँ। चलो, अब तो मैं उनकी कथा कह लूँ। कोई पुराण लिख दूँ मैं उनका। बिना कृष्ण वाली कोई नई महाभारत लिख दूँ मैं। एक सीता जी के अग़वा पर हज़ारों रामायणें लिखीं ऋषियों ने। 1947 की हज़ारों सीता माताओं पर कोई आधी रामायण ही लिख दूँ मैं।
* लेकिन, लिख ही नहीं पाता हूँ मैं। कह ही नहीं पाता हूँ मैं। उन्नीस सौ सैंतालीस लिख कर ही रुक जाता हूँ। उन्नीस सौ सैंतालीस कह कर ही चुप हो जाता हूँ मैं।
* पोठोहार की एक-दो नहीं, बल्कि हज़ारों बेटियाँ बटवारे की बलि चढ़ा दी गईं। बहुत ख़ूबसूरत, मीठा बोलने वाली, बड़ी सलीक़े वाली, सुबह उठकर गुरुद्वारों और मन्दिरों में जाने वालीं, आँखों में ख़ाब बुनती रहने वाली वो लाडलिआँ नहीं जानती थीं कि उस दौर में उस जगह पर उनका हिन्दू और सिख होना ही बहुत बड़ा गुनाह हो गया था। पोठोहार के गांवों की वो चिड़ियाँ थीं। पोठोहार की वो कुड़ियाँ थीं। मेरी क़ौम की वो बेटियाँ थीं। हमारी पगड़ियाँ थीं वो।
* अपने ख़ानदान के लोगों को उन्होंने बहादुरों की तरह धर्म पर मरते देखा था। अपनी इज़्ज़त को बचाने की कोशिश में कूंओं में कूद कर जान दे देने वाली उन पोठोहारणों के आगे आज के हम लोग बहुत बौने हैं।
* मेरी आज की उदास शाम उन्हीं के नाम है। मेरी गुनाहगार आँखों में तैरते आँसू उन्हीं की याद को अर्पित हैं।
मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* दिसम्बर, 1946 और जनवरी, 1947 में हज़ारा में और मार्च, 1947 में पोठोहार में हिन्दुओं और सिखों के साथ जो हुआ, वही कुछ अगस्त का महीना आते-आते ईस्ट पंजाब में मुसलमानों के साथ होना शुरू हो गया। हज़ारा और नॉर्थवेस्टर्न फ्रंटियर प्रोविन्स के दूसरे हिस्सों, पोठोहार और वेस्ट पंजाब के दूसरे हिस्सों, और सिन्ध से लाखों हिन्दू और सिख रिफ्यूजी ईस्ट पंजाब में अमृतसर, फिरोज़पुर, जालंधर, पटियाला वग़ैरह जगहों पर पहुँच चुके थे। हज़ारा के क़त्लेआम के बाद वहाँ के हज़ारों हिन्दू-सिख तो जनवरी, 1947 में ही रिफ्यूजी कैम्पों में पहुँच चुके थे। मार्च, 1947 के पोठोहार क़त्लेआम के बाद वहाँ से बहुत हिन्दू-सिख ईस्ट पंजाब चले गये थे। लाहौर से भी जून के बाद बहुत हिन्दू-सिख ईस्ट पंजाब पहुँच रहे थे।
* ईस्ट पंजाब के शहरों, कस्बों, गाँवों, हर जगह हिन्दू-सिख शरणार्थी दिख रहे थे। वो शरणार्थी जहाँ-जहाँ जाते, अपने पर हुये ज़ुल्मों की दास्तानें सुनाते। इससे ईस्ट पंजाब के बहुत सारे हिन्दुओं और सिखों में ग़ुस्सा फैलने लगा और वो लोग बदले की भावना से भरने लगे। पंजाब की पुलिस में मुस्लिम मेजोरिटी थी, जिसकी वजह से ईस्ट पंजाब में मुसलमानों पर बड़े लेवल पर हमले नहीं हुये थे। लेकिन अगस्त में फ़ौज की तरह पुलिस भी इण्डिया और पाकिस्तान में बाँट दी गयी। मुसलमान पुलिसवाले पाकिस्तान जाना शुरू हो गये। इससे ईस्ट पंजाब के दंगाइयों के हौसले बढ़ गये। उन्होंने बड़ी प्लानिंग से मुसलमानों पर हमलों करने शुरू कर दिये। बड़ी प्लानिंग से फण्ड इकट्ठे किये गये और दंगाइयों को हथियार और दूसरा सब सामान मुहैया कराया गया।
* ईस्ट पंजाब में शुरू हुये मुसलमानों के क़त्लेआम से बच निकले मुसलमान रिफ्यूजीज़ पाकिस्तान के दूसरे इलाक़ों की तरह पोठोहार में भी पहुँचने शुरू हुये। उन्होंने वहाँ पहुँचकर अपने साथ हुये ज़ुल्मों की बातें बताना शुरू किया। उन्होंने अपने ख़ानदान के लोगों के क़त्लों के बारे में बताया। उन्होंने अपनी औरतों के अग़वा होने की बातें बताईं। उन्होंने अपने माल-असबाब लूटे जाने की बातें बताईं। उनको उनके घरों से जबरी निकाले जाने की बातें बताईं। इससे वहाँ के मुसलमानों में ग़ुस्सा फैल गया। ईस्ट पंजाब में हो रहे मुसलमानों के क़त्लेआम का बदला अब पोठोहार के बचे-खुचे हिन्दुओं और सिखों से लिया जाने लगा।
* मार्च, 1947 में हिन्दू-सिखों पर हमले करने के जुर्म में जो लोग जेलों में थे, उनको पाकिस्तान बनते ही रिहा कर दिया गया। जेल से बाहर आये वो दंगाई इसको इस बात का संकेत मानने लगे कि हिन्दुओं, सिखों पर हमले करने, क़त्ल करने, रेप करने, और लूटपाट करने की उनको खुली छुटी है।
* पोठोहार में हुये अगस्त, सितम्बर के क़त्लेआम के बारे में कुछ ख़ास डेटा नहीं मिलता। इससे बहुत लोग इस ग़लतफ़हमी में रह जाते हैं कि पोठोहार में हिन्दुओं, सिखों का क़त्लेआम ख़ास तौर पर मार्च, 1947 में ही हुया था। ऐसा ख़्याल बिल्कुल ग़लत है। अगस्त, सितम्बर के क़त्लेआम के बारे में कुछ ख़ास डेटा नहीं मिलने की वजह यह है कि अगस्त, सितम्बर के क़त्लेआम में से इतने हिन्दू और सिख भी नहीं बच सके, जो क़त्लों के बारे में कुछ बता पाते।
* मेरे दादा जी, और दूसरे कई और बुज़ुर्ग रिश्तेदारों की बताई क़त्लेआम की कई वारदातें किसी भी लिस्ट में नहीं मिलती हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि ज़्यादा घटनाओं को दर्ज ही नहीं किया गया।
* जो मज़लूम हिन्दू, सिख पाकिस्तान के कबाइली इलाक़ों से निकलकर भारत आने की बजाय अफ़ग़ानिस्तान चले गये, उनके साथ क्या-क्या ज़ुल्म हुये, इसका ज़िक्र किसी ने भी नहीं किया। आपको शायद एक भी ऐसा लेखक नहीं मिलेगा, जिसने अफ़ग़ानिस्तान गये हिन्दू, सिखों की बात लिखी हो।
* 15 अगस्त को पाकिस्तान एक अलग मुल्क के तौर पर वजूद में आया। उसी सुबह रावलपिण्डी में कुछ हिन्दुओं, सिखों को छुरे मारे गये। अगले दिन करतारपुरा मुहल्ले में कई हिन्दू-सिख क़त्ल कर दिये गये। 17 अगस्त को ख़ालसा कॉलेज और ख़ालसा स्कूल पर हमला करके वहाँ तोड़फोड़ की गई।
* 18 अगस्त को ईद थी। ईद की नमाज़ पढ़ने के बाद दंगाइयों की भीड़ें शहर के अलग-अलग हिस्सों में फैल गयीं और हिन्दू-सिखों को क़त्ल करना शुरू कर दिया था। हिन्दू-सिखों के घरों और दुकानों को लूट लिया गया। गुरुद्वारों और मन्दिरों पर हमले किये गये। गुरु ग्रन्थ साहिब को आग लगा दी गयी और मन्दिरों की मूर्तियों को तोड़ दिया गया।
* 11 सितम्बर को तक़रीबन 200 नॉन-मुस्लिम मिलिट्री की हिफ़ाज़त में 11 ट्रकों में सवार हो कर रावलपिण्डी से रवाना हुये। उनको रोककर दो बार उनकी बारीकी से तलाशी ली गयी। जब वो रावलपिण्डी से तक़रीबन 6 मील की दूरी तक ही गये थे, तो उनपर हथियारबन्द लोगों ने हमला कर दिया। इन 11 ट्रकों की हिफ़ाज़त के लिये साथ गयी मिलिट्री के लोग सड़क के किनारे बैठ गयी और इन हिन्दुओं-सिखों की कोई मदद नहीं की। इन 11 ट्रकों में से 2 ट्रक तो अपने लोगों को लेकर वापस रावलपिण्डी जाने में कामयाब रहे। बाक़ी के 9 ट्रकों के तक़रीबन सभी लोगों का क़त्लेआम कर दिया गया। कई लड़किओं को अग़वा कर लिया गया।
मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* 9 मार्च को धामली पर हमला हुआ। हिन्दुओं-सिखों ने जब फायरिंग की, तो हमलावर भाग गये। अगले दिन फिर हमला हुआ। हिन्दुओं-सिखों की फायरिंग के बाद हमलावर फिर भाग खड़े हुये। 12 मार्च को बहुत बड़ी भीड़ ने हमला किया और घरों को आग लगाना शुरू कर दिया। गाँव के एक हिन्दू ने अमन-शान्ति की बातचीत शुरू की। हमलावरों ने हमला रोकने के बदले 14 हज़ार रुपये की माँग की। उनको 14 हज़ार रुपये दे दिये गये और वो वापस चले गये। उन दिनों 14 हज़ार रुपये बहुत बड़ी रक़म हुआ करती थी।
* लेकिन अगले ही दिन हमलावर फिर आ गये। अब हिन्दू और सिख जो भी हथियार मिला, लेकर हमलावरों पर टूट पड़े। तक़रीबन 500 हिन्दू-सिख यहाँ शहीद हुये। कुछ ही लोग बच सके। जैसा कि पोठोहार में बाक़ी जगहों पर भी हुआ, हिन्दू-सिखों का क़त्लेआम हो जाने के बाद मिलिट्री भी पहुँच गयी।
* कहुटा तहसील में नारा गाँव में सिखों की मेजोरिटी थी। 9 मार्च शाम को इस गाँव को दंगाइयों ने घेरना शुरू किया। रात को गाँव पर हमला कर कुछ घरों को आग लगा दी गयी। अगले दिन 10 मार्च को भी हिन्दू-सिखों पर हमले, लूट, और आगज़नी जारी रही। सिख और हिन्दू मुक़ाबला करते रहे। 11 मार्च तक दंगाइयों की तादाद बढ़ कर हज़ारों में हो गयी। हमले और तेज़ गये। हमलावर गाँव के अन्दर तक आने में कामयाब हो गये। कई सिख औरतों और बच्चों को जलते घरों में फेंक कर ज़िंदा जला दिया गया। औरतों पर ऐसे-ऐसे ज़ुल्म किए गये, जिन का ब्यान करना भी मुश्किल है। कई औरतों ने कुएँ में कूदकर जान दे दी।
* हरियाल में 9 मार्च को ही तक़रीबन 20 सिखों के क़त्ल हुये। 40 को अग़वा किया गया। गुरुद्वारा जला दिया गया।
हरियाल मास्टर तारा सिंघ का पुश्तैनी गाँव है। दंगाइयों ने अपनी नफ़रत का खुला मुज़ाहरा करते हुये मास्टर तारा सिंघ के घर को बिल्कुल तोड़ कर गिरा दिया। फिर उस जगह पर जूते मारकर उन्होंने अपने ग़ुस्से की नुमाइश की।
* रावलपिण्डी के मंडरा गाँव मे 9 मार्च को एक बड़ा क़त्लेआम हुया, जिसमें 200 हिन्दू और सिख शहीद हुये। सिखों और हिन्दुओं की दुकानों और घरों को लूटकर जला दिया गया। गुरुद्वारा साहिब और स्कूल को भी आग लगा दी गयी। 40 लापता हो गए, जो शायद गाँव से भाग हुये रास्ते में कहीं क़त्ल कर दिये गए।
* 10 मार्च को बेवल गाँव को दंगाइयों की एक बड़ी भीड़ ने घेर लिया। इस गाँव में तक़रीबन 400 सिख रहते थे और कुछ आबादी हिन्दूओं और मुसलमानों की भी थी। जब हमला हुआ, तो गाँव में मौजूद 400 के क़रीब हिन्दू और सिख गुरुद्वारे और गुरुद्वारे के आसपास कुछ घरों में चले गये। दंगाइयों ने गुरुद्वारे को घेर कर उसमें आग लगा दी। आसपास को भी आग लगा दी। गुरुद्वारे और आसपास के घरों में पनाह लिये बैठे सभी के सभी हिन्दू और सिख इनमें ज़िन्दा ही जल कर मर गये। जो हिन्दू और सिख पकड़े गये, उनको बहुत तसीहे दिये गये। एक सिख मुकन्द सिंघ की दोनों आँखें निकाल ली गईं। फिर उसको टाँगों से पकड़कर तब तक घसीटते रहे, जब तक वह मर न गया।
* 10 मार्च को दंगाइयों ने दुबेरण को घेर लिया। हिन्दू और सिख गुरुद्वारे में चले गये। ख़ाली पड़े घरों को दंगाइयों ने लूटकर जला दिया। कुछ सिखों के पास बन्दूकें थी, जिससे उन्होंने गुरुद्वारे से कुछ देर मुक़ाबला किया। गोलियां ख़त्म होने पर वो मुक़ाबला भी बन्द हो गया। हमलावरों ने उनको सरेंडर करने को कहा। उन्होंने वादा किया कि उनको मारा नहीं जायेगा और औरतों को बेइज़्ज़त नहीं किया जायेगा। इसपर तक़रीबन 300 हिन्दू, सिख गुरुद्वारे से बाहर आ गये। उन सभी को बरकत सिंघ के घर पर ले जाया गया। रात को हमलावरों ने उस घर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। घर के अन्दर मौजूद सभी हिन्दू, सिख ज़िन्दा ही जल कर मर गये।
* अगली सुबह हमलावरों ने गुरुद्वारे पर फिर से हमला करके गुरुद्वारे के दरवाज़े तोड़ दिये। अन्दर मौजूद कई सिख अब हाथों में तलवारें लेकर बाहर निकले और दंगाइयों पर टूट पड़े। सभी लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। दंगाइयों ने बाक़ी सिखों और हिन्दुओं को भी क़त्ल कर दिया। इस गाँव से कुछ ही हिन्दू, सिख ज़िन्दा बच सके थे। इस गाँव की 70 औरतों को अग़वा कर लिया गया।
* मछिआं गाँव पर हमला 11 मार्च को हुआ। यहाँ तक़रीबन 200 लोगों का क़त्लेआम हुआ। औरतों और बच्चों को अग़वा कर लिया गया। गुरुद्वारे को आग लगा दी गई।
* रावलपिण्डी के मशहूर गाँव धुडियाल पर पहला हमला 12 मार्च को हुआ, जिसका मुक़ाबला हिन्दुओं और सिखों ने बड़ी कामयाबी से किया। अगले दिन 13 मार्च की शाम को दुबारा ज़बरदस्त हमला किया गया। हिन्दुओं और सिखों के ज़्यादातर घर, 4 गुरुद्वारे, ईरान-हिन्द बैंक, और ख़ालसा हाई स्कूल जला दिये गये। 8 सिख इस हमले में शहीद हुये। मिलिट्री के आने से दंगाई भाग गये। यहाँ यह ख़्याल रहे कि तब तक सांझा मिलिट्री थी। तब तक पाकिस्तान बनाये जाने का ऐलान ब्रिटिश हुकूमत की तरफ़ से नहीं हुआ था।
* हिन्दुओं-सिखों के उस क़त्लेआम की मुहम्मद अली जिन्नाह समेत मुस्लिम लीग के किसी भी बड़े रहनुमा ने निन्दा नहीं की, मज़म्मत नहीं की, हालांकि अमन कायम करने की अपील ज़रूर जिन्नाह ने की। अमन करने के लिये कहना अलग बात है और हज़ारों बेगुनाहों के क़त्ल की मज़म्मत करना, उस पर ग़म का इज़हार करना अलग बात है।
* मार्च के क़त्लेआम के बाद रावलपिण्डी समेत पोठोहार के इलाके में बाक़ी बचे हिन्दुओं और सिखों के क़त्लेआम का दूसरा दौर अगस्त के महीने में चला।
मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* पंजाब के दूसरे हिस्सों, या पूरे भारत में कहीं भी मार्च, 1947 में पोठोहार के हिन्दू-सिखों के क़त्लेआम के जवाब में फ़ौरी तौर पर हिन्दुओं या सिखों की भीड़ों ने कोई दंगा नहीं किया। हिन्दुओं या सिखों की भीड़ों ने कोई दंगा दिसम्बर 1946 / जनवरी 1947 में नॉर्थवेस्टर्न फ्रंटियर प्रोविन्स के हज़ारा डिवीज़न में हुये हिन्दुओं-सिखों के क़त्लेआम के बाद भी नहीं किया था। हज़ारा से भाग कर हज़ारों हिन्दू-सिख शरणार्थी पंजाब में ही गये थे। पंजाब की यूनियनिस्ट, कांग्रेस, अकाली कॉलिशन सरकार ने भी और नॉर्थवेस्टर्न फ्रंटियर प्रोविन्स की कांग्रेस सरकार ने भी उस क़त्लेआम की ख़बरों को दबाया ही था, ताकि उनके सूबों में बदअमनी फैलने से उनकी सरकारों को कोई ख़तरा न हो।
* 24 जनवरी को पंजाब सरकार मुस्लिम नेशनल गार्ड्स पर पाबन्दी लगा देती है। मुस्लिम नेशनल गार्ड्स के लाहौर में दफ़्तर की तलाशी के दौरान मुस्लिम लीग के रहनुमा तलाशी का विरोध करते हैं। उनको पुलिस ग्रिफ्तार कर लेती है।
अगले दिन 25 जनवरी को मुस्लिम लीग के लियाक़त अली ख़ान कहते हैं कि नेशनल गार्ड्स मुस्लिम लीग का ज़रूरी हिस्सा है और नेशनल गार्ड्स पर हमला मुस्लिम लीग पर हमला है। उसके अगले दिन 26 जनवरी को मुस्लिम लीग के लाहौर से ग्रिफ्तार किये गये रहनुमाओं पर से केस वापस ले लिये जाते हैं। दो दिन बाद, 28 जनवरी को नेशनल गार्ड्स पर चार दिन पहले लगाई गई पाबन्दी हटा ली जाती है।
* इसका क्या मतलब निकाला जाये? क्या यह मुस्लिम लीग की सियासी जीत नहीं थी? क्या इससे यह साबित नहीं होता था कि यूनियनिस्ट, कांग्रेस, अकाली कॉलिशन सरकार बहुत कमज़ोर थी?
* पंजाब में मिली सियासी जीत ही मुस्लिम लीग के लिये काफ़ी नहीं थी। वो अब एक ख़ूनी जंग जीतना चाहते थे।
* पोठोहार में मार्च, 1947 का हिन्दू-सिख क़त्लेआम पाकिस्तान बनने की तारीख़ की पहली ऐसी ख़ूनी जंग थी, जिसमें आल इण्डिया मुस्लिम लीग, मुस्लिम नेशनल फ्रंट, और उनके हिमायतियों को फ़तह मिली।
* 5 मार्च को रावलपिण्डी में भी हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स ने जलूस निकाला। हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स के इस जलूस पर पाकिस्तान बनाने के हिमायती लोगों ने हमला कर दिया। हिन्दू और सिख स्टूडेंट्स ने उनका मुकाबला किया। इस के बाद हमलावरों ने रावलपिंडी शहर के अंदरूनी हिस्से पर हमला कर दिया। रावलपिण्डी शहर में हिन्दुओं और सिखों पर हमले 3 दिन तक जारी रहे।
* 7 मार्च को रावलपिंडी ज़िले में तक्षिला रेल्वे स्टेशन पर एक रेलगाड़ी रोक कर हिन्दू और सिख मुसाफिरों को गाड़ी से बाहर निकाल कर क़त्ल कर दिया गया। यहाँ 22 हिन्दू और सिख क़त्ल किए गए।
* रावलपिण्डी के गाँव मुग़ल में 8 मार्च को हमला हुआ। दंगाइयों के लीडर काज़िम खान ने, जो कि ददोछा गाँव का था, क़ुरआन की कसम खायी कि सिखों को क़त्ल नहीं किया जायेगा, अगर वो सरेंडर कर दें। सिखों ने भी गोलियाँ ख़त्म होने की वजह से कोई और रास्ता न देखते हुये काज़िम खान की शर्त मान ली। जैसे ही सिख गुरुद्वारे से बाहर आये, दंगाइयों ने उनपर हमला करके उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। कुल 141 सिखों को क़त्ल कर दिया गया। इस गाँव के कुछ ही सिख बच पाये थे। गुरुद्वारा साहिब को जला दिया गया।
* 8 मार्च को ढोल बजाते हुये हज़ारों की तादाद में दंगाइयों की भीड़ ने अडियाला गाँव को घेर लिया। हिन्दुओं और सिखों को उनके घरों से निकाल-निकाल कर या तो ज़िन्दा ही जला दिया, या छुरे मार कर, या गोलियों से क़त्ल कर दिया गया। 40 हिन्दू और सिख अपनी जान बचाने के लिये मुसलमान बन गये।
* 8 मार्च को कहूटा में हुये क़त्लेआम में 60 के क़रीब हिन्दू, सिखों को क़त्ल किया गया। यहाँ बहुत बड़ी तादाद में औरतों को अग़वा किया गया।
* थोहा ख़ालसा जैसा ही एक हादसा बेमली गाँव मे 8 मार्च को हुआ, जहाँ कुछ सिखों ने अपनी औरतों और लड़किओं को हमलावरों के हाथों देने की बजाय ख़ुद ही क़त्ल कर दिया था। यहाँ तक़रीबन 80 सिखों का क़त्लेआम हुआ। 105 लोगों को अग़वा कर लिया गया।
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* ब्रिटिश पंजाब के तीन ज़िलों, रावलपिण्डी, झेलम, और कैम्पबेलपुर (अट्टक) का इलाक़ा ही पोठोहार कहा जाता है।
* ज़िला रावलपिण्डी में मुस्लिम आबादी 80 फ़ीसद थी और हिन्दुओं और सिखों की आबादी 18.67 फ़ीसद थी। कैम्पबेलपुर (अट्टक) में मुस्लिम आबादी 90.42 फ़ीसद और हिन्दू-सिख आबादी 9.36 फ़ीसद थी। झेलम में मुस्लिम आबादी 89.42 फ़ीसद और हिन्दू-सिख आबादी 10.41 फ़ीसद थी।
* मार्च 1947 में हिन्दुओं और सिखों का सबसे खूंखार, सबसे बड़ा क़त्लेआम पोठोहार में ही हुआ था। 5 मार्च से शुरू हुये उस क़त्लेआम में अगले कुछ दिनों में ही 7000 से ज़्यादा हिन्दू और सिखों को क़त्ल कर दिया गया था। इन कुछ दिनों में ही 4000 से भी ज़्यादा हिन्दू और सिख औरतों को गुंडों की भीड़ें उठा कर ले गईं थीं।
* इस वक़्त मेरे परदादा जी, मेरे दादा जी और पिता जी परिवार के साथ रावलपिण्डी में ही थे। दिसम्बर, 1946 में नार्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स की हज़ारा डिवीज़न में हुये क़त्लेआम से बच निकले हमारे खानदान के सामने अब पोठोहार का क़त्लेआम अपना ख़ूनी मूँह खोलकर खड़ा था।
* 1947 ने मेरे ख़ानदान के सिर्फ़ दो लोगों की जान ली। वो दो भी रिफ्यूजी कैम्प में उस वक़्त फैली महामारी की वजह से मौत का शिकार हुये। इनमें एक मेरी परदादी जी थी और दूसरी मेरी बुआ जी, जो एक बहुत ख़ूबसूरत छोटी-सी बच्ची थी। वो दिसम्बर, 1946 के हज़ारा के क़त्लेआम में से बच निकले। वो मार्च, 1947 के पोठोहार के क़त्लेआम से बच निकले। लेकिन पाकिस्तान की स्थापना ने उनका पीछा रिफ्यूजी कैम्प तक किया और उनकी जान लेकर ही रही।
* जिनकी आंखों के सामने जिनके प्यारे बुरी तरह से तड़पा-तड़पा कर क़त्ल कर दिये गये, जिनकी बहन-बेटियाँ-बहुएं बेइज़्ज़त कर दी गईं, जिनकी फूल-सी बच्चियाँ उनके देखते-देखते अग़वा कर लीं गयीं, उनके दुःखों को बयान करने के लिये मैं किस डिक्शनरी से अल्फ़ाज़ ढूँढ कर लाऊँ?
* 1971 में अपने ही मुसलमान पाकिस्तानी भाइयों का क़त्लेआम करते हुये जिनके हाथ नहीं कांपे, उन्होंने 1947 में दूसरे मज़हब के लोगों, हिन्दुओं और सिखों के साथ कितना ज़ुल्म किया होगा, इसका अन्दाज़ा लगाना कोई मुश्किल नहीं है।
* 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान किये गये बेरहम और भयंकर जेनोसाइड के जुर्म में 45-46 साल बाद अब जब कुछ मुजरिमों को फाँसी पर लटकाया गया है, तो 1947 के क़त्लेआम को लेकर मेरी बेचैनी और बढ़ गयी है। क्या 1947 के क़त्लेआम का कोई मुजरिम ही नहीं था? अगर था, तो 70 साल बाद भी हम उसकी निशानदेही करने में क्यों डर रहे हैं?
* 1947 के हालात, 1947 के क़त्लेआम, उस क़त्लेआम के शहीद, उस क़त्लेआम के ज़िम्मेदार घिनौने चेहरे, उस क़त्लेआम से हासिल हुये सबक़। कौन करेगा इन सबका ज़िक्र?
* दंगाइयों की भीड़ ढोल बजाते हुये आती और किसी एक गाँव को चारों तरफ़ से घेर लेती। आते ही फायरिंग करके कुछ हिन्दू, सिखों को शहीद कर दिया जाता, ताकि बाक़ी के हिन्दुओं, सिखों में दहशत फैल जाये। उसके बाद उनको मुसलमान बनने के लिये कहा जाता। जो मुसलमान बन जाते, उनको छोड़ दिया जाता, बाकियों को क़त्ल कर दिया जाता। किसी को गोली मारकर, किसी को ज़िन्दा जला कर, किसी को चाकू-छुरों से काटकर शहीद कर दिया जाता।
* औरतों और लड़किओं का खुलेआम रेप किया जाता। हज़ारों की भीड़ के सामने किसी मासूम हिन्दू या सिख औरत की इज़्ज़त लूटी जा रही होती और दंगाइयों की भीड़ ख़ुशी में चिल्ला रही होती।
* पोठोहारी हिन्दू, सिख लड़कियाँ अक्सर बहुत ख़ूबसूरत होती थीं। 4000 से ज़्यादा हिन्दू, सिख औरतों को अग़वा किया गया। बेटों, भाइयों, पिताओं, शौहरों को बांध कर उनके सामने उनकी माँओं, बहनों, बेटियों, और बीवियों से रेप किये गये। कितनी ही औरतों के अंगों को काट दिया गया। उनके प्राइवेट पार्ट्स में डंडे और लोहे की छड़ें डाल दी गईं। अग़वा की गई बहुत-सी औरतों और लड़किओ को कबाइली इलाक़ों में भी ले जाया गया, जिसके बाद उनको कभी भी ट्रेस नहीं किया जा सका।
* छोटे-छोटे बच्चों को छुरों से काट डाला गया। दूध-मुँहे बच्चों को उनकी माँओं से छीन कर जलते हुये घरों में फेंक दिया गया। छोटे बच्चों की लाशों को बरछों पर टांग कर गांवों में अपनी बहादुरी की नुमाइश करते हुये घुमाया गया।
* सूखे कूँयों में लकड़ियां डाल कर आग लगा देना और फिर एक-एक कर के हिन्दुओं और सिखों को उस आग में फेंकते जाना पाकिस्तान की मांग करने वाले उन नापाक इख़लाक़ वाले दरिन्दों के लिये महज़ दिल ख़ुश करने का एक ज़रीया था।
* मेरा मक़सद उन शहीदों की तादाद बताना नहीं है। उनकी तादाद बताई ही नहीं जा सकती। मेरे तो बस दो ही मक़सद हैं। पहला यह कि आज के लोगों को और आगे आने वाली नस्लों को पता चले कि हमारे बुज़ुर्गों ने कैसे-कैसे ज़ुल्म सहे। दूसरा यह कि इस तरह मैं उन सभी शहीदों को श्रद्धांजलि दे देता हूँ। उनको मैं और दे भी क्या सकता हूँ? उनको कुछ देने की मेरी औक़ात ही नहीं है। जुड़े हाथों से, आँखों में आँसू भर के उनकी कोई बात ही सुना सकता हूँ बस।
* ओ धर्म के शहीदो! आप ही मेरे देव-देवियों हो। आप ही मेरे पित्र हो। आपको अर्पण करने के लिये मेरे पास इन दो गुनाहगार आँखों से छलकते आँसू ही हैं बस। ये आँसू ही कबूल करके मुझे देवऋण और पित्रऋण से मुक्त करो।
* मार्च के क़त्लेआम के बाद भी पोठोहार में ही रुके रहे सभी बचे हुये हिन्दुओं और सिखों को वहां से निकालकर महफ़ूज़ इलाके में लाया जा सकता था। लेकिन इन लोगों को यही कहा जाता रहा कि पाकिस्तान नहीं बनेगा। इनको यही सलाह दी जाती रही कि उनको अपने घर-जायदाद छोड़कर कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है।
* भारत में रिफ्यूजी कैम्प्स में पहुँचे लोगों के बयान लिखे तो गये, लेकिन सँभाले नहीं गये। भारत सरकार ने 1948 में जो फैक्ट फाइंडिंग आर्गेनाईजेशन बनाई, उसने हिन्दू, सिख रिफ्यूजीज़ की आंखों देखी बहुत बातों को भी यह कह कर रिजेक्ट कर दिया था कि यह बढ़ा चढ़ा कर बताई गई बातें हैं या इनके कोई सबूत नहीं हैं। भारत सरकार को सबूत कौन देता? पाकिस्तान सरकार? पाकिस्तान की उस वक़्त की सरकार के मुताबिक तो 1947 में हिन्दुओं सिखों का क़त्लेआम हुआ ही नहीं था।
* मिंटगोमरी ज़िले से उजड़ कर भारत आये रिफ्यूजी मदन लाल पाहवा के ख़ानदान के 20 लोग भारत पहुँचने से पहले ही रास्ते में क़त्ल कर दिये गये। कांग्रेसी बाप का बेटा था मदनलाल। ग़ुस्से में भरा मदन लाल पाहवा 20 जनवरी, 1948 को दिल्ली में गान्धीजी को क़त्ल करने पहुँच गया था। गान्धीजी के नज़दीक नहीं पहुँच पाया। कुछ मीटर की दूरी पर ही बम्ब फोड़ डाला। कोई नहीं मरा। 10 दिन बाद नाथूराम गोडसे ने गान्धीजी को क़त्ल किया। पाहवा को जेल हुई। 14 नवम्बर, 1964 को वो जेल से छूटा। मरते दम तक उसको अफ़सोस रहा कि वो गान्धीजी का क़त्ल नहीं कर सका।
* क्या भारत सरकार पाहवा जैसे रिफ्यूजीज़ के बयानों को झूठा साबित करने के लिये ही हिन्दू, सिख रिफ्यूजीज़ की आंखों देखी बातों को भी यह कह कर रिजेक्ट कर रही थी कि यह बढ़ा चढ़ा कर बताई गई बातें हैं या इनके कोई सबूत नहीं हैं? या सिर्फ़ इसलिये कि गान्धीजी के क़त्ल की वजह से सरकार हिन्दू, सिख रिफ्यूजीज़ पर ग़ुस्सा उतार रही थी? क्या सरकार की सारी कोशिश इसी बात को साबित करने पर थी कि हिन्दू-सिख क़त्लेआम के लिये गान्धीजी या नेहरू जी या कांग्रेस पार्टी ज़िम्मेदार नहीं थी, और इसीलिए हिन्दू-सिख क़त्लेआम की बातों को दबाने की काफ़ी हद तक कामयाब कोशिश की गई?
* जिसके ख़ानदान के 20 बेगुनाह लोग क़त्ल कर दिये गये, उससे सबूत मांगोगे? मांगो। वो बम फोड़ेगा। बम फोड़ना ग़लत है। उसी तरह, उन हालात में रिफ्यूजी से सबूत माँगना भी ग़लत है।
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* #पोठोहार में ज़िला रावलपिण्डी के ख़ूबसूरत गाँव #थोहा_ख़ालसा का क़त्लेआम 1947 के ख़ूनी दौर के सबसे मशहूर क़त्लेआमों में से एक है। थोहा ख़ालसा में 93 सिख औरतों ने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये गाँव के कुएँ में कूद कर अपनी जान दे दी थी।
* थोहा ख़ालसा में इन औरतों समेत तक़रीबन 200 सिखों की मौत हुई। यह 12 मार्च, 1947 की बात है।
* इण्डियन नेशनल कांग्रेस से ताल्लुक़ रखने वाली सोशल वर्कर रामेश्वरी नेहरू कुछ साथियों के साथ इस घटना के 18 दिन बाद 30 मार्च को थोहा ख़ालसा पहुंचीं। उन्होंने वहाँ देखा कि सिखों के टूटे पड़े घरों में लाशें पड़ीं थीं। जब वो उस कुँए पर गये, तो वहाँ से इतनी ज़्यादा बदबू आ रही थी कि वहाँ रुकना भी मुश्किल था। जब उन्होंने कुँए में देखा तो उन्हें उन औरतों की लाशें दिखीं, जो पानी से फूल चुकी थीं। दो या तीन औरतों की लाशों के सीने पर तब तक भी छोटे-छोटे बच्चों की लाशें चिपकी पड़ीं थीं।
* हिन्दू और सिख औरतों के कुँयों में कूदकर जान देने के वाक़्यात पोठोहार में कई और जगहों पर भी हुये थे, पर थोहा ख़ालसा का यह उदास वाक़या ही सबसे ज़्यादा मशहूर हुआ था।
* मैंने बहुत बार सोचा कि 1947 में कुंओं में कूदकर या ख़ुद को आग लगा कर जान दे देने वाली उन बहनों और बेटियों के बारे में अपने दिल के उदास ख़्याल किसी मर्सिये के रूप में बयान करूँ। अभी तक ऐसा कुछ ख़ास लिख नहीं पाया, जिसे मैं आप लोगों को सुना सकूँ। उनको ले कर मेरे दिल की उदासी बड़ी गहरी है। अल्फाज़ अभी साथ नहीं दे रहे।
* दिल में एक दबी हुई चाहत है कि कभी थोहा ख़ालसा के उस कुँए के किनारे बैठ कर जी भर के रोयूँ। वहाँ मरी कुँवारी लड़किओं के लिये सुहाग-गीत गाऊँ। उस कुँए में डूब मरे बच्चों के लिये कोई लोरी गाऊँ।
* कूओं से आ रही है जो, किसकी आवाज़ है?
“धर्म पर फिदा हुये हैं, हम को नाज़ है।”