(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’
जब मैं मिडल स्कूल में पढ़ता था, हमारे प्रिंसिपल बड़े सख़्त अनुशासन वाले थे। जब मैंने पोस्टग्रेजुएशन की, तब वे रिटायरमेंट की उम्र में पहुँच गये।
जब मैं उनके पास पढ़ता था, तब मुझे उनसे डर लगता था। अब जब कि वे रिटायरमेंट की अवस्था में आ गये, तो मुझे कई बार उनसे लम्बी बातें करने का मौक़ा मिला। मैं कई बार उनके घर चला जाता और उनसे बातें करता रहता। उन्होंने मुझे पंजाब में एक धार्मिक विद्यालय में प्रिंसिपल लगवा दिया। वे मुझे कहते थे, “मैं चाहता हूँ कि तुम्हें धार्मिक क्षेत्र में मान्यता मिले।”
एक दिन वे मुझे कहने लगे कि अब उनको लगता है कि उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी ऐसे ही बच्चों पर सख़्त अनुशासन रखकर बर्बाद कर दी। बच्चों पर ज़रूरत से ज़्यादा सख़्ती ठीक नहीं है।
आज मुझे अपने उन्हीं प्रिंसिपल साहिब की बातें याद आ रही हैं।
मुझे भी महसूस होता है कि ख़ुद को नफ़रत से बचाने की अपनी कोशिश में मैं प्रेम बाँटने में कंजूस ही रह गया। मन को शान्त रखने की कोशिश में मेरी लम्बी मौन साधना ने मुझे उन लोगों से भी दूर कर दिया, जिनको उनके परेशानी के क्षणों में मेरी हमदर्दी और गाइडेन्स की ज़रूरत थी। लोगों के दुःखों और परेशानियों को मुझे उनके ही नज़रिए से देखकर उनकी मदद करनी चाहिए, न कि सबकी समस्याओं को अपनी विरक्तता की ऐनक से देखना चाहिए।
मेरे एक प्रियजन की आत्महत्या ने मुझे कुछ हद तक खा लिया था। जब वह बहुत परेशान था, तब वह मुझे बार-बार फ़ोन करता था। मेरी साधना में विघ्न पड़ता था। उसको हौसला देने के लिये मैं मौनव्रत तोड़ देता था। फिर मौनव्रत तोड़ने की खीझ भी उसी पर उतार देता था।
विरक्तता की मेरी ऐनक से देखने पर उस की समस्या कुछ गम्भीर नहीं थी। बस ‘माया’ थी। दो-तीन श्लोक, थोड़ी-सी फ़िलॉसफ़ी, बस, और मेरे नज़रिए से वह समस्या नदारद।
पर, उसके नज़रिए से वह जीवन-मृत्यु का प्रश्न था। कितना फ़र्क़ था उसके नज़रिए और मेरे विरक्तता के नज़रिए से!
जब उसने पहली बार आत्महत्या की कोशिश की, तो उसे हस्पताल में भर्ती किया गया। मैंने उसे ‘माया’ की व्यर्थता पर प्रवचन पिलाया। यह सब ‘माया’ है। जब ‘ज्ञान’ प्रकट होगा, तो ‘माया’ ख़ुद-ब-ख़ुद नष्ट हो जाएगी। यह। वह। फलाना। ढिमका।
अपने-अपने ‘सत्य’ हैं सब के। लोगों के ‘सत्य’ मेरे लिये ‘दृष्टिभ्रम’ (illusion) हैं। मेरा ‘सत्य’ लोगों के लिये ‘साइकोसिस’ (Psychosis) है। आज मेरे लिये जो ‘दृष्टिभ्रम’ या ‘माया’ है, वह कभी मेरे लिये भी ‘सत्य’ था।
मैं जिसे ‘माया’ कह रहा था, उसके लिये वह ‘सत्य’ था, जिसको नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता था। उसका वह ‘सत्य’ उसके पूरे जीवन पर भारी पड़ रहा था।
उसे मैंने यही कहा था कि सब ठीक हो जाएगा, बस ‘थोड़ा वक़्त’ लगेगा।
‘थोड़ा वक़्त’ कितना होता है? पता नहीं। ‘थोड़ा वक़्त’ कभी-कभी बहुत ज़्यादा होता है। उस वक़्त में व्यक्ति को कोई हौसला देने वाला चाहिये। बार-बार हौसला देने वाला चाहिये। कोई राह दिखाने वाला चाहिये। बार-बार राह दिखाने वाला चाहिये। विरक्तता की गहन गुफ़ा में बन्द हुये बैठे योगी का मौन वहाँ मददगार नहीं होता। उस मौनी का होना या न होना कोई अर्थ ही नहीं रखता। जब शब्दों की ज़रूरत हो, तब मौन एक अपराध है।
मुझे अपनी एक बात याद आ गई है। मेरे पिता जी की मौत के बाद मैं अकेला हो गया। कुछ लोग मेरी शादी की बात चलाने लगे।
मोहाली के एक गुरुद्वारे में देखने-दिखाने की बात हुई। लड़की वाले लड़की को लेकर वहाँ आये। कुल चार लोग थे वे। एक बिचौला था। और मेरी ओर से मैं था, बिल्कुल अकेला।
जब गुरुद्वारे के अन्दर बैठे, तो उन्होंने लड़की को मेरी बाईं ओर बिठा दिया। मैंने एक बार भी लड़की की ओर नहीं देखा। जैसा कि होता है, उन्होंने मुझसे कई सवाल पूछे। मेरा रोज़गार। मेरी इनकम। मेरा घर। मेरा परिवार। मेरे रिश्तेदार।
फिर वह मुझे कहने लगे कि आप भी कुछ पूछो लड़की के बारे में। मैंने कहा कि मुझे कुछ नहीं पूछना है।
क्या पूछते हैं लड़की से? यही न, कि कितना पढ़े हैं, खाना बना लेते हैं, ब्लाह ब्लाह ब्लाह। बिचौलिए ने पहले ही बता दिया था कि लड़की ग्रैजुएट है। पिता की मौत हो चुकी है। उसकी माँ है, भाई है, बहन है। शादी की बात चला रहे हैं, तो खाना बनाना तो आता ही होगा। पूछने वाली कोई बात है ही नहीं।
फिर वे कहने लगे कि अकेले में लड़की से बात करनी हो, तो कर लीजिये। मैंने कहा कि मुझे तो कोई ज़रूरत नहीं, अगर आपकी लड़की मुझसे अकेले में बात करना चाहे, तो कर सकती है।
वह लड़की घर से सोचकर भी आई हो कि अकेले में कुछ प्रश्न पूछूँगी, तो मेरी ठण्डी बातें सुनकर उसने मन बना लिया होगा कि इस खड़ूस से शादी नहीं करनी।
शादी तो ज़िन्दगी का प्रश्न है। वहाँ भी मैं कुछ पूछना नहीं चाहता था। क्या लापरवाही थी वह मेरी! कुछ पूछने का, कुछ बात करने का मतलब यह होता है कि मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ। बोलने से मेरे परहेज़ ने यह सन्देश दिया कि मैं उस लड़की की परवाह नहीं करता। उसने मुझसे शादी करनी है, तो करे, नहीं तो न करे।
ज़ाहिर है कि मेरा रिश्ता वहाँ नहीं हुआ।
किसी की बात सुनने का मतलब है कि हमें उस की परवाह है। छोटा बच्चा आसमान में से अपने लिये चांद चाहता है। हम जानते हैं कि यह असम्भव है, पर बच्चे के मन को बहलाते हैं, क्योंकि हम उस बच्चे की परवाह करते हैं।
कोई आत्महत्या की कोशिश करके हस्पताल में भर्ती है। उससे बात करने का मतलब यही है कि हम उसकी परवाह करते हैं। यह नहीं कि हम उसे ज्ञान पिलाने बैठ जायें। बस हौसला दें कि ज़िन्दगी यूँ ही गंवा देने के लिये नहीं है। उसे बताएं कि तेरे मर जाने से हमें कितना दर्द होगा। हमें दर्द होगा, क्योंकि हम तेरी परवाह करते हैं। यही सार है एक दुःखी व्यक्ति से बात करने का कि हम उसे जताएं कि कोई है, जो उसकी परवाह करता है।
परवाह जताई जाती है बोलकर। मौन रहकर नहीं। मैंने अभी लिखा है कि जब शब्दों की ज़रूरत हो, तब मौन एक अपराध है।
जब उसने दूसरी बार आत्महत्या की कोशिश की, तो वह उस में सफल रहा; और मैं असफल हुआ। मेरी तरह वह घर में अकेला ही रहता था। कुछ दिन उसकी लाश ऐसे ही घर में पड़ी रही और बदबू फैलने लगी। फिर पुलिस ने दरवाज़ा तोड़कर लाश बाहर निकाली।
दृष्टा-भाव। माया। मौन। निवृत्ति। मोक्ष। ये मेरे प्रिय शब्द हैं। प्रियतर शब्द हैं। प्रियतम शब्द हैं। इन शब्दों के फ़िलॉसफ़ी में गहरे अर्थ हैं। पर, दुःखी व्यक्ति के लिये ये सब बे-मायनी हैं।
जब अर्थपूर्ण शब्दों की ज़रूरत हो, जो बता सकें कि हाँ, हम तुम्हारी परवाह करते हैं, तब फ़िलॉसफ़ी से ‘थोड़े वक़्त’ के लिये छुट्टी ले लेनी चाहिए।
‘थोड़ा वक़्त’ कितना होता है? पता नहीं।
(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’