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साधु और चोर

अभी एक गुड़िया की कॉल आई। बातों-बातों में वह कहने लगी कि अगर हम कहीं यात्रा कर रहे हों, और रेलगाड़ी में एक साधु, एक पुलिसकर्मी, और एक चोर हो, तो हम चोर के साथ बैठना पसन्द करते हैं। हमारे मन में ऐसा भय बैठ चुका है साधुओं के प्रति, इतनी सारी ख़बरें पढ़-सुन कर।

मैं उसकी बात सुनकर हँस पड़ा। उसकी बात बहुत गम्भीर थी, पर मुझे तसल्ली भी हुई कि यह गुड़िया मुझ से इतनी सहज तो है कि ऐसी बात बड़े आराम से मुझसे कह सके। बिल्कुल वैसे ही, जैसे बेटियाँ अपने पिता से कोई भी बात बिना भय के कह सकें। साधुओं को भी ‘बाबा’ इसी लिये कहा जाता है। फ़ारसी भाषा में ‘बाबा’ का अर्थ ही ‘पिता’ होता है।

चोर वाली बात से मुझे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। मेरा एक क़रीबी रिश्तेदार चंडीगढ़ में एक कोर्ट केस में फंस गया, जहाँ उसे ज़मानत की ज़रूरत थी। मैंने उसकी ज़मानत दे दी। कुछ समय बाद वह बेल जम्प (bail jump) कर गया, तो कोर्ट की तरफ़ से मुझे सम्मन आने लग गये। आख़िर मुझे वकील हायर (hire) कर के कोर्ट में पेश होना पड़ा।

एक पेशी के दिन बरसात हो रही थी। मैं छाता लेकर कोर्ट में गया और अदालत के बाहर अपने केस की आवाज़ लगने का इन्तज़ार करने लगा। मेरे साथ एक व्यक्ति बैठा था। मेरी उससे बातचीत शुरू हो गई। उस ने बताया कि वह प्रोफैशनल चोर है और एक क्रिमिनल केस में पेशी भुगतने आया था।

जब मेरे वाले केस की आवाज़ लगी, तो मैं अपना छाता उसी चोर को पकड़ा कर अदालत के अन्दर चला गया। पेशी के दौरान मेरे ज़िहन में यही ख़्याल आता रहा कि मैं अपना छाता एक चोर को पकड़ा कर आया हूँ और अब मुझे मेरा छाता वापस नहीं मिलेगा।

पेशी के बाद मैं अदालत से बाहर निकला, तो वह मेरे छाते को पकड़ कर वहीं बैठा हुआ था। उसने मुझे मेरा छाता वापस दिया और फिर मुझे मेरे केस की अपडेट पूछने लगा।

फिर मैंने उसे कहा, “आप को भी आप के केस में बहुत परेशानियों को झेलना पड़ रहा है।”

उसने उत्तर दिया, “जदों कुक्कड़ मैं खाधे हन, तां बाँगां वी हुण मैनूं ही देणिआं पैणिआं हन।” (जब मुर्ग़े मैंने खाये हैं, तो बाँग भी अब मुझे ही देनी पड़ेगी)।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

हिंसा और प्रेम

कई व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो दूसरे लोगों को शारीरिक या मौखिक हिंसा से भयभीत करते रहते हैं। यह भी स्वाभाविक है कि दूसरों के विरुद्ध हिंसा करने वालों के शत्रु भी बन ही जाते हैं। हिंसा से हिंसा पैदा होती ही है। दूसरों के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग करने वाले हमेशा ही जवाबी हिंसा से भयभीत रहते हैं, चाहे वे अपने भय को छुपा कर ही रखें।

दूसरी तरफ़, ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो सभी को प्रेम करने वाले होते हैं। वे प्रेम के ऐसे पुजारी होते हैं कि अपने विरोधियों का भी बुरा नहीं करते।

सभी को प्रेम करने वाले व्यक्तियों के बारे में यह पूरी तरह से निश्चित है कि उनको भी प्रेम करने वाले लोगों की कमी नहीं होती। उनके प्रेम के जवाब में उनको भी अनेक लोगों से प्रेम मिलता है। अगर हिंसा से हिंसा पैदा होती है, तो प्रेम से प्रेम पैदा होता है।

हर व्यक्ति के पास हिंसा करने का भी विकल्प है और प्रेम करने का भी। वह जो भी विकल्प चुनना चाहे, चुन सकता है। जो भी विकल्प वह चुनेगा, बदले में उस को भी वही कुछ मिलना है।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

अनावश्यक बोलते रहना

अक्सर ऐसा होता है कि जिन को बोलना नहीं चाहिए, वे बहुत बोलते हैं। ऐसी जगह भी बोलने से रुकते नहीं, जहाँ उन्हें मौन होकर सिर्फ़ सुनना ही चाहिए। कोई सत्पुरुष कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा हो, वहाँ भी ऐसे लोग कुछ अनावश्यक बात कर के सत्पुरुष को ही चुप रहने पर मजबूर कर देते हैं।

एक दूसरी स्थिति भी है। जिनके पास बहुत कुछ है बताने के लिये, जो ज्ञानीजन हैं, जो प्रभु-प्रेमी हैं, जो सर्वहितैषी हैं; वे बोलते ही नहीं हैं। बोलें भी, तो बहुत कम बोलते हैं।

भाई गुरदास जी लिखते हैं:-

बिनु रस रसना बकत जी बहुत बातै
प्रेम रस बसि भए मोनि ब्रत लीन है।
(भाई गुरदास जी, कबित 65)।

(जब जीवन में प्रेम का) रस नहीं (था, तो) जीभ बहुत बातें कहती थी। (अब जीभ) प्रेम-रस के वश में होकर मौनव्रत में लीन हो गई है।

बोलना तभी चाहिए, जब हृदय में प्रेम हो। क्रोध में क्या बोलना? नफ़रत में क्या बोलना? ईर्ष्या में क्या बोलना? लालच में क्या बोलना? भाई, बोलना ही है, तो प्रेम में बोलिये, प्रेम से बोलिये।

पर होता यह है कि ज़बान में रस नहीं, अर्थात वाणी मधुर नहीं, फिर भी बहुत बोलता है, बहुत बातें करता है। बिना मतलब ही बोलता रहता है।

दूसरी ओर, जो प्रेम-रस के वशीभूत हो गये, वे तो मौन ही रहने लगे। उन को प्रेम-रस के आगे संसारी बातों का रस अत्यंत फीका लगने लगा। व्यर्थ की बातें करके प्रेम-रस से वंचित रहना ही क्यों?

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

राम, राम, और राम

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

भारतीय पौराणिक कथाओं में ऐसे तीन महात्माओं का विस्तार से ज़िक्र आया है, जिनका नाम ‘राम’ था। इन तीनों को परम्परागत भारतीय समाज ने बहुत आदर दिया है। ये तीन महान आत्माएं हैं, भृगुवंशी महर्षि श्री जमदग्नि के महाबली सपुत्र श्री राम, रघुवंशी महाराज दशरथ के महाबली सपुत्र श्री राम, और वृष्णिवंशी श्री वसुदेव के महाबली सपुत्र श्री राम।
Shri Ram

तीन राम जी

इन तीनों को भगवान कहा गया है। इन तीनों को विष्णु भगवान का अवतार कहा गया है। इन तीनों ने भीषण युद्ध लड़े।

भृगुवंशी श्री राम को भृगुवंशी होने की वजह से भार्गव राम और महर्षि श्री जमदग्नि के सपुत्र होने की वजह जामदग्न्य राम या सिर्फ़ जामदग्न्य के नाम से भी जाना जाता है। उनका प्रिय शस्त्र परशु (कुहाड़ा) होने की वजह से लोक में वह भगवान श्री परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हैं। पुराणों में उन्हें भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में छठा अवतार कहा गया है।

रघुवंशी श्री राम को महाराज दशरथ के सपुत्र होने की वजह से दाशरथि राम भी कहा जाता है। यही राम सबसे प्रसिद्ध हैं। भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में सातवें अवतार इन्हीं भगवान श्रीराम को माना गया है।

वृष्णिवंशी श्री वसुदेव के सपुत्र श्री राम को अधिकतर बलभद्र या बलराम के नाम से जाना जाता है। वे भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में से आठवें अवतार भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं। पुरातन परम्परा में इन्हें भी विष्णु अवतार माना गया है, हालांकि वे शेषनाग के अवतार के तौर पर अधिक प्रसिद्ध हैं।

इन तीनों अवतारों में से सबसे अधिक प्रसिद्धि दाशरथि श्रीराम को ही मिली है। वैष्णव, जैन, बौद्ध, और सिख, इन चारों ही पन्थों के धर्म-ग्रंथों में श्री राम का ज़िक्र मिलता है।

वैष्णव पन्थों में दाशरथि श्री राम को भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में गिना गया है। वे विष्णु के सातवें अवतार हैं।

जैन कथाएं वैष्णव कथायों से कुछ भिन्न हैं, लेकिन श्रीराम उन कथायों में भी नायक हैं। जैन धर्म के 63 शलाकापुरुषों और 9 बलभद्रों में श्रीराम का भी शुमार होता है।

बौद्ध धर्म की जातक कथायों में भी श्रीराम का ज़िक्र मिलता है। उस अनुसार श्रीराम एक तपस्वी हैं, जो राजा बने। उनको बुद्ध का ही पूर्व अवतार माना गया है।

सिख ग्रन्थों में भी राम कथा का ज़िक्र हुआ है। गुरु ग्रन्थ साहिब में कई जगहों पर राम का ज़िक्र मिलता है। दशमग्रंथ में विष्णु के 24 अवतारों की कथा में रामकथा काफ़ी विस्तार से दी गई है।

श्रीराम चाहे विष्णु के अवतार हैं या 9 बलभद्रों में से एक या बुद्ध का ही पूर्व अवतार; वैष्णव, जैन, बौद्ध, और सिख परम्पराओं में महाराज राम को नायक ही माना गया है। यह एक तथ्य है।

किन्तु, आश्चर्य है कि पिछले कुछ दशकों से ऐसे हिन्दू, बौद्ध, और सिख देखने को मिल रहे हैं, जो रावण को नायक सिद्ध करने की भरपूर कोशिश में लगे हुये हैं। क्या ये लोग नहीं जानते कि इन्हीं के धर्मग्रंथों में नायक श्री रामचन्द्र हैं, न कि रावण?

हर भाषा की अपनी संस्कृति है

कल अपनी निजी डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ रहा था। ख़्याल आया कि जब कभी मेरे बाद कोई इन्हें पढ़ेगा, तो ज़्यादातर हिस्सा उसको समझ ही नहीं आएगा। मैंने बातें इशारों में लिखी हैं, जिन के मायने समझने किसी के लिये आसान नहीं होंगे। बल्कि, ग़लत समझे जाने की गुंजाइश ज़्यादा है।

जब मैं पंजाबी में मास्टर्स की पढ़ाई कर रहा था, तो एक बार एक प्रोफ़ैसर साहिब ने पढ़ाते हुये कहा था कि एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में बिल्कुल परफ़ैक्ट अनुवाद सम्भव ही नहीं है।

डॉक्टर एच. के. लअल चण्डीगढ़ में हमें उर्दू पढ़ाया करते थे। वे कहते थे कि भाषा सिर्फ़ शब्दों का संग्रह और ग्रामर की बन्दिश ही नहीं होती, बल्कि उस का अपना अलग कल्चर भी होता है। उस कल्चर को जाने-समझे बिना उस भाषा के साहित्य को ठीक से समझा नहीं जा सकता।

यह जो कल्चर है, इस का दूसरे कल्चर में अनुवाद करना बहुत मुश्किल है। साहित्य की किसी रचना का अक्सर भाषाई अनुवाद ही किया जाता है। भाषाई अनुवाद में मूल साहित्यिक रचना का एक अंदाज़ा-सा ही लगता है, पूर्ण रूप से दर्शन नहीं होते।

मैंने ख़ुद कई रचनाओं के मूल को भी पढ़ा है और उनके किसी भाषाई अनुवाद को भी। दोनों में स्पष्ट फ़र्क़ दिखाई पड़ता है।

ऐसा मैंने गुरुवाणी के अनुवाद में तो बहुत ज़्यादा शिद्दत से महसूस किया है। गुरुवाणी का भाषाई अनुवाद बुद्धिजीवी और पेशेवर कथावाचक करते तो हैं, पर गुरुवाणी का भीतरी भाव उन की पकड़ से बाहर रह जाता है। दूसरे धर्मों के ग्रन्थों के अनुवाद के बारे में भी बिल्कुल यही बात कही जा सकती है।

कोई व्यक्ति हमारी ही भाषा में, हमारे ही सामने, हमें ही मुख़ातिब होते हुये कुछ कहे, तो भी सम्भव है कि उस की बात को हम अन्यथा ले लें। फिर दूसरे कल्चर की भाषा के अनुवाद की तो बात ही क्या!

बहुत लम्बे अरसे से उर्दू शायरों ने सरकारी लाठी की मार से बचने के लिये #शायरी, ख़ास तौर पर #ग़ज़ल का इस्तेमाल अपनी बात पोशीदा ढंग से कहने के लिये किया है। हर भाषा की तरह उर्दू की भी अपनी अलग संस्कृति है। किसी भी भाषा को उसकी संस्कृति से अलग कर के नहीं समझा जा सकता। उर्दू के बारे में भी यही बात है।

बहुत भारतीय लोग उर्दू की शायरी पसन्द करते हैं। उन में से कई उर्दू के ग्रुप्स भी चला रहे हैं। लेकिन, ये ग्रुप्स चलाने वाले मुख्यतः देवनागरी लिपि में उर्दू पढ़ने वाले लोग हैं, वह भी कुछ प्रसिद्ध उर्दू शायरी के शौक़ीन। उनको उर्दू की गहरी शायरी की शायद समझ नहीं है। उन के लिये उर्दू शायरी का मतलब बस इश्किया शायरी से है।

मैं भी ऐसे ग्रुप्स में कभी बहुत ऐक्टिव रहता था। तब मैं अपनी फेसबुक वॉल पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ ग्रुप्स में ही उर्दू की शायरी शेयर (share) करता था।

एक बार मैंने शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का यह शेअर उन्हीं कुछ ग्रुपों में शेयर किया था:-

बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की।
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की।

– शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

(शैख़ [धार्मिक रहनुमा] के दिल में गुनाह करने की इच्छा अभी बाक़ी है। अगर इस ने अपनी दाढ़ी काली की, तो यह अपना मूँह भी काला करेगा)।

باقی ہے دل میں شیخ کے حسرت گناہ کی
کالا کرے گا منہ بھی جو داڑھی سیاہ کی

شیخ ابراہیم ذوقؔ

अब हुआ यह कि ग्रुप एडमिन्स (group admins) इस शेअर से घबरा गये। उन को लगा कि यह शेअर किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकता है। सभी ने मेरी वह पोस्ट हटा दी।

ऐसा उन की उर्दू संस्कृति के प्रति अज्ञानता की वजह से हुआ।

दाढ़ी सियाह करना, अर्थात, अपनी दाढ़ी के बाल काले करना इस्लाम में मना है। सिख पन्थ में भी यही स्थिति है। ‘शैख़’, यानि धार्मिक रहनुमा होकर भी अगर कोई अपनी दाढ़ी काली कर रहा है, तो इसका मतलब उस के मन में गुनाह करने की इच्छा है। गुनाह करेगा, तो अपना मूँह भी काला करेगा।

यह शेअर लिख कौन रहा है? ‘शेख़ इब्राहीम ज़ौक़’, जो जाति से ख़ुद ‘शेख़’ भी हैं और मुसलमान भी।

तो, एक बहुत गहरे शेअर को इस लिये समझा नहीं जा सका, क्योंकि उस शेअर की भाषा की संस्कृति से वे लोग अनजान थे।

(यही वजह थी कि मैंने वे ग्रुप्स छोड़ दिये थे। उनके बार-बार पूछने पर भी मैंने उन एडमिन्स को वजह नहीं बताई थी। अब यहाँ पर वह वजह लिख दी है)।

आज अपनी ही डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ते हुये यह पुरानी बात याद आ गई और यहाँ लिख दी है।

ख़ैर, छोड़िये। ????

अब इक़बाल असलम का एक शेअर पेश करता हूँ।

Swami Amrit Pal Singh 'Amrit'पुष्कर, राजस्थान की एक याद

‘जुब्बा’ कहते हैं, लम्बे-से कुर्ते को, जो शेख़ पहनते हैं। जुब्बे जैसा ही लम्बा चोला कुछ भारतीय साधु भी पहनते हैं, जिसे ‘अल्फ़ी’ बोलते हैं। ‘अल्फ़ी’ को ही ‘खफ़नी’ भी कह देते हैं। ‘दस्तार’ कहते हैं पगड़ी को। ‘रियाकारी’ का अर्थ है, ‘मक्कारी’, ‘पाखण्ड’, ‘झूठा दिखावा’।

अरे ओ जुब्बा-ओ-दस्तार वालो!
रिया-कारी हुई है बंदगी क्या?

~ इक़बाल असलम

रियाकारी: – मक्कारी, पाखण्ड, झूठा दिखावा।

(ओ लम्बा चोला और दस्तार पहनने वालो! क्या अब पाखण्ड ही भक्ति हो गई है?)

ارے او جبہ و دستار والو
ریا کاری ہوئی ہے بندگی کیا

اقبال اسلم

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

25 अगस्त, 2023

सनातन जैन परम्परा में गुरुपूर्णिमा

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

कथा है कि सौधर्म इन्द्र द्वारा विधिवत् पूजा और धनपति कुबेर द्वारा समवसरण की रचना के बावजूद श्री महावीर भगवान की दिव्य ध्वनि ६६ दिन तक नहीं खिरी।

समवसरण

समवसरण

आम भाषा में कहें, तो महावीर भगवान के रूप में गुरु तो मौजूद हैं, परन्तु गणधर, अर्थात, कोई ऐसा विशेष शिष्य उपलब्ध नहीं है, जो उनके ब्रह्मोपदेश को ग्रहण कर के आगे और जिज्ञासुओं को भी वही उपदेश कर सकने की योग्यता रखने वाला हो।

बहुत गम्भीर बात है। गुरु उपलब्ध है। देव वहाँ मौजूद हैं। मानव वहाँ मौजूद हैं। अन्यन्य जीव वहाँ मौजूद हैं। परन्तु, कोई ऐसा विशेष शिष्य वहाँ मौजूद नहीं है।

सब के जीवन में गुरु आते हैं। हर किसी के एक से ज़्यादा गुरु होते हैं। कोई आपको पढ़ना सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको गणित सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको साइंस पढ़ाता है, तो वह आपका गुरु है। आपको कोई भी विषय पढ़ा दे, वह आपका गुरु है।

माँ ने आपको बहुत कुछ सिखाया। चलना सिखाया। खाना, पीना, बोलना सिखाया। माँ भी गुरु है। जीवों के पहले गुरु के तौर पर माँ का ही ज़िक्र होता है।

जो आपको धर्म पढ़ा दे, धर्मग्रंथ पढ़ा दे, वह भी आपका गुरु है। इस गुरु का विशेष स्थान है। इसकी ख़ास अहमियत है।

पर, इन सब गुरुओं से भी ऊपर एक गुरु है। यह वह गुरु है, जो आपको मोक्ष मार्ग दिखा दे; जो आपको आत्मानुभव करा दे; जो आपको ब्रह्मज्ञान करा दे। ऐसे गुरु को सद्गुरु कहा जाता है।

सद्गुरु के अनेक शिष्य हो सकते हैं। हज़ारों, लाखों, करोड़ों शिष्य हो सकते हैं। पर हर शिष्य इतना सुयोग्य नहीं होता कि सद्गुरु के अत्यन्त रहस्यमय उपदेश को ग्रहण कर सके।

एकोपि वङ्कामणिरि शिष्योलं गुरूजनस्य किं बहुभि:।
काचशकलैरिवान्यैरू दण्डै: पात्रता शून्यै :।।

गुरूजन के लिये हीरे जैसा एक भी शिष्य पर्याप्त है। कांच के टुकड़ों की भांति पात्रता-शून्य ढेर सारे उद्दण्ड शिष्यों से क्या प्रयोजन है।

काँच के टुकड़ों का ढेर क्या करना? चाहे एक ही सुयोग्य शिष्य हो, पर जो हो, तो हीरे जैसा निर्मोल्क हो। हीरा तो एक भी बहुत है।

समवसरण में सद्गुरु बैठे हैं। उनको सुनने के लिये देव आदि मौजूद हैं। सौधर्म इन्द्र खड़ा है। कुबेर खड़ा है। पर सद्गुरु हैं कि मौन हैं।

गोतम गोत्र वाले, सकल वेद वेदांग के ज्ञाता, महापण्डित, इन्द्रभूति जी अपने भाइयों और 500 ब्राह्मण शिष्यों के साथ समवसरण में पहुँचते हैं। सामने देखते हैं। पवित्रात्मा महावीर महाभाग बैठे हैं।

सद्गुरु जब बोलेंगे, तब बोलेंगे। जब उपदेश देंगे, तब देंगे। अभी तो उनका दर्शन करने मात्र से इन्द्रभूति जी को कुछ ऐसी अनुभूति हो गई है, जिस को कथन नहीं किया जा सकता।

वह आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन था।

ऐसा शिष्य भी दुर्लभ है। सौधर्म इन्द्र भी वहाँ इन्द्रभूति का पूजन करते हैं। अहो भाग्य! सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य का पूजन तो देव भी करते हैं। इन्द्र भी करते हैं।

इन्द्रभूति अपने दोनों भाइयों, वायुभूति और अग्निभूति, और अपने 500 शिष्यों समेत महावीर भगवान से दीक्षित हो गये।

इन्द्रभूति अब महावीर भगवान की संगति से इन्द्रभूति नहीं रहे। वह महावीर जी के प्रथम गणधर हो गये। इतिहास में उनको गौतम गणधर के नाम से जाना जाता है। उनके दोनों भाइयों सहित ग्यारह गणधर हुए।

श्री गौतम गणधरश्री गौतम गणधर

इतिहास कहता है कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन इन्द्रभूति को उनके गुरु की प्राप्ति हुई और वे गौतम गणधर हो गये। इस लिये जैन परम्परा में यह दिन ‘गुरु पूर्णिमा’ के तौर पर विख्यात हुआ।

इससे अगले दिन, यानि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को प्रभात में पहली बार श्री महावीर जी की गम्भीर वाणी खिरी।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

दूसरों की परवाह करना


(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

जब मैं मिडल स्कूल में पढ़ता था, हमारे प्रिंसिपल बड़े सख़्त अनुशासन वाले थे। जब मैंने पोस्टग्रेजुएशन की, तब वे रिटायरमेंट की उम्र में पहुँच गये। 

जब मैं उनके पास पढ़ता था, तब मुझे उनसे डर लगता था। अब जब कि वे रिटायरमेंट की अवस्था में आ गये, तो मुझे कई बार उनसे लम्बी बातें करने का मौक़ा मिला। मैं कई बार उनके घर चला जाता और उनसे बातें करता रहता। उन्होंने मुझे पंजाब में एक धार्मिक विद्यालय में प्रिंसिपल लगवा दिया। वे मुझे कहते थे, “मैं चाहता हूँ कि तुम्हें धार्मिक क्षेत्र में मान्यता मिले।”

एक दिन वे मुझे कहने लगे कि अब उनको लगता है कि उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी ऐसे ही बच्चों पर सख़्त अनुशासन रखकर बर्बाद कर दी। बच्चों पर ज़रूरत से ज़्यादा सख़्ती ठीक नहीं है।

आज मुझे अपने उन्हीं प्रिंसिपल साहिब की बातें याद आ रही हैं। 

मुझे भी महसूस होता है कि ख़ुद को नफ़रत से बचाने की अपनी कोशिश में मैं प्रेम बाँटने में कंजूस ही रह गया। मन को शान्त रखने की कोशिश में मेरी लम्बी मौन साधना ने मुझे उन लोगों से भी दूर कर दिया, जिनको उनके परेशानी के क्षणों में मेरी हमदर्दी और गाइडेन्स की ज़रूरत थी। लोगों के दुःखों और परेशानियों को मुझे उनके ही नज़रिए से देखकर उनकी मदद करनी चाहिए, न कि सबकी समस्याओं को अपनी विरक्तता की ऐनक से देखना चाहिए।

मेरे एक प्रियजन की आत्महत्या ने मुझे कुछ हद तक खा लिया था। जब वह बहुत परेशान था, तब वह मुझे बार-बार फ़ोन करता था। मेरी साधना में विघ्न पड़ता था। उसको हौसला देने के लिये मैं मौनव्रत तोड़ देता था। फिर मौनव्रत तोड़ने की खीझ भी उसी पर उतार देता था। 

विरक्तता की मेरी ऐनक से देखने पर उस की समस्या कुछ गम्भीर नहीं थी। बस ‘माया’ थी। दो-तीन श्लोक, थोड़ी-सी फ़िलॉसफ़ी, बस, और मेरे नज़रिए से वह समस्या नदारद। 

पर, उसके नज़रिए से वह जीवन-मृत्यु का प्रश्न था। कितना फ़र्क़ था उसके नज़रिए और मेरे विरक्तता के नज़रिए से! 

जब उसने पहली बार आत्महत्या की कोशिश की, तो उसे हस्पताल में भर्ती किया गया। मैंने उसे ‘माया’ की व्यर्थता पर प्रवचन पिलाया। यह सब ‘माया’ है। जब ‘ज्ञान’ प्रकट होगा, तो ‘माया’ ख़ुद-ब-ख़ुद नष्ट हो जाएगी। यह। वह। फलाना। ढिमका।

अपने-अपने ‘सत्य’ हैं सब के। लोगों के ‘सत्य’ मेरे लिये ‘दृष्टिभ्रम’ (illusion) हैं। मेरा ‘सत्य’ लोगों के लिये ‘साइकोसिस’  (Psychosis) है। आज मेरे लिये जो ‘दृष्टिभ्रम’ या ‘माया’ है, वह कभी मेरे लिये भी ‘सत्य’ था। 

मैं जिसे ‘माया’ कह रहा था, उसके लिये वह ‘सत्य’ था, जिसको नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता था। उसका वह ‘सत्य’ उसके पूरे जीवन पर भारी पड़ रहा था।

उसे मैंने यही कहा था कि सब ठीक हो जाएगा, बस ‘थोड़ा वक़्त’ लगेगा। 

‘थोड़ा वक़्त’ कितना होता है? पता नहीं। ‘थोड़ा वक़्त’ कभी-कभी बहुत ज़्यादा होता है। उस वक़्त में व्यक्ति को कोई हौसला देने वाला चाहिये। बार-बार हौसला देने वाला चाहिये। कोई राह दिखाने वाला चाहिये। बार-बार राह दिखाने वाला चाहिये। विरक्तता की गहन गुफ़ा में बन्द हुये बैठे योगी का मौन वहाँ मददगार नहीं होता। उस मौनी का होना या न होना कोई अर्थ ही नहीं रखता। जब शब्दों की ज़रूरत हो, तब मौन एक अपराध है।

मुझे अपनी एक बात याद आ गई है। मेरे पिता जी की मौत के बाद मैं अकेला हो गया। कुछ लोग मेरी शादी की बात चलाने लगे।

मोहाली के एक गुरुद्वारे में देखने-दिखाने की बात हुई। लड़की वाले लड़की को लेकर वहाँ आये। कुल चार लोग थे वे। एक बिचौला था। और मेरी ओर से मैं था, बिल्कुल अकेला।

जब गुरुद्वारे के अन्दर बैठे, तो उन्होंने लड़की को मेरी बाईं ओर बिठा दिया। मैंने एक बार भी लड़की की ओर नहीं देखा। जैसा कि होता है, उन्होंने मुझसे कई सवाल पूछे। मेरा रोज़गार। मेरी इनकम। मेरा घर। मेरा परिवार। मेरे रिश्तेदार। 

फिर वह मुझे कहने लगे कि आप भी कुछ पूछो लड़की के बारे में। मैंने कहा कि मुझे कुछ नहीं पूछना है।

क्या पूछते हैं लड़की से? यही न, कि कितना पढ़े हैं, खाना बना लेते हैं, ब्लाह ब्लाह ब्लाह। बिचौलिए ने पहले ही बता दिया था कि लड़की ग्रैजुएट है। पिता की मौत हो चुकी है। उसकी माँ है, भाई है, बहन है। शादी की बात चला रहे हैं, तो खाना बनाना तो आता ही होगा। पूछने वाली कोई बात है ही नहीं।

फिर वे कहने लगे कि अकेले में लड़की से बात करनी हो, तो कर लीजिये। मैंने कहा कि मुझे तो कोई ज़रूरत नहीं, अगर आपकी लड़की मुझसे अकेले में बात करना चाहे, तो कर सकती है।

वह लड़की घर से सोचकर भी आई हो कि अकेले में कुछ प्रश्न पूछूँगी, तो मेरी ठण्डी बातें सुनकर उसने मन बना लिया होगा कि इस खड़ूस से शादी नहीं करनी।

शादी तो ज़िन्दगी का प्रश्न है। वहाँ भी मैं कुछ पूछना नहीं चाहता था। क्या लापरवाही थी वह मेरी! कुछ पूछने का, कुछ बात करने का मतलब यह होता है कि मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ। बोलने से मेरे परहेज़ ने यह सन्देश दिया कि मैं उस लड़की की परवाह नहीं करता। उसने मुझसे शादी करनी है, तो करे, नहीं तो न करे।

ज़ाहिर है कि मेरा रिश्ता वहाँ नहीं हुआ।

किसी की बात सुनने का मतलब है कि हमें उस की परवाह है। छोटा बच्चा आसमान में से अपने लिये चांद चाहता है। हम जानते हैं कि यह असम्भव है, पर बच्चे के मन को बहलाते हैं, क्योंकि हम उस बच्चे की परवाह करते हैं।

कोई आत्महत्या की कोशिश करके हस्पताल में भर्ती है। उससे बात करने का मतलब यही है कि हम उसकी परवाह करते हैं। यह नहीं कि हम उसे ज्ञान पिलाने बैठ जायें। बस हौसला दें कि ज़िन्दगी यूँ ही गंवा देने के लिये नहीं है। उसे बताएं कि तेरे मर जाने से हमें कितना दर्द होगा। हमें दर्द होगा, क्योंकि हम तेरी परवाह करते हैं। यही सार है एक दुःखी व्यक्ति से बात करने का कि हम उसे जताएं कि कोई है, जो उसकी परवाह करता है। 

परवाह जताई जाती है बोलकर। मौन रहकर नहीं। मैंने अभी लिखा है कि जब शब्दों की ज़रूरत हो, तब मौन एक अपराध है।

जब उसने दूसरी बार आत्महत्या की कोशिश की, तो वह उस में सफल रहा; और मैं असफल हुआ। मेरी तरह वह घर में अकेला ही रहता था। कुछ दिन उसकी लाश ऐसे ही घर में पड़ी रही और बदबू फैलने लगी। फिर पुलिस ने दरवाज़ा तोड़कर लाश बाहर निकाली। 

दृष्टा-भाव। माया। मौन। निवृत्ति। मोक्ष। ये मेरे प्रिय शब्द हैं। प्रियतर शब्द हैं। प्रियतम शब्द हैं। इन शब्दों के फ़िलॉसफ़ी में गहरे अर्थ हैं। पर, दुःखी व्यक्ति के लिये ये सब बे-मायनी हैं। 

जब अर्थपूर्ण शब्दों की ज़रूरत हो, जो बता सकें कि हाँ, हम तुम्हारी परवाह करते हैं, तब फ़िलॉसफ़ी से ‘थोड़े वक़्त’ के लिये छुट्टी ले लेनी चाहिए। 

‘थोड़ा वक़्त’ कितना होता है? पता नहीं।

(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

मित्र राष्ट्रों के हिन्दू-सिख समाज की मदद भी करे भारत सरकार












(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को बढ़ावा देने के लिये हमारी केन्द्रीय सरकार ने साल 2014 से लेकर जनवरी, 2018 के बीच अफ़ग़ानिस्तान को 2,088 करोड़ रुपये और श्रीलंका को 1,025 करोड़ रुपये दिये हैं।

मित्र राष्ट्रों की मदद करना बहुत अच्छी बात है। सरकार के इस क़दम की मैं प्रशंसा करता हूँ।

भारत एक बहुत बड़ा देश है, जो आर्थिक तौर पर बहुत तेज़ी से उभर कर विश्व के सामने आया है। हम दुनिया की पांच बड़ी सेनाओं में से एक हैं। हम सबसे ज़्यादा आबादी वाले मुल्क़ों में से एक हैं। हम विविध संस्कृतियों और भाषाओं वाला देश हैं।

जब भी विश्व में कहीं भी हिन्दू, जैन, सिख सम्प्रदायों की बात होती है, तो भारत का भी ज़िक्र आ जाता है। यह स्वाभाविक है। ऐसा इसलिये है, क्योंकि हमारा यह देश हिन्दू, जैन, सिख सम्प्रदायों की मातृभूमि (homeland) है। हमारे संविधान के सेक्युलर होने के बावजूद हमारे भारत की यह विश्व भर में एक विशेष पहचान है। यह एक तथ्य है। कोई इस तथ्य को नापसन्द तो कर सकता है, लेकिन झुठला नहीं सकता।

हिन्दू, जैन, सिख सम्प्रदायों की मातृभूमि (homeland) होने की वजह से भारत की इन सम्प्रदायों के उन लोगों के प्रति एक विशेष ज़िम्मेदारी भी बनती है, जो कहीं विदेश में अपने सम्प्रदाय की वजह से ज़ुल्म का शिकार बनते हैं। उनको ज़ुल्मों से बचाने के लिये असरदार क़दम उठाना भारत सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

अफ़ग़ानिस्तान में लम्बे समय से चल रहे गृहयुद्ध की वजह से वहाँ के हिन्दू-सिख समाज को बहुत ज़ुल्मों का शिकार होना पड़ा है। हज़ारों अफ़ग़ान हिन्दू-सिख परिवार अफ़ग़ानिस्तान में अपने घरों को छोड़कर विदेशों में जाने के लिये मजबूर हो गये हैं। जैसा कि स्वाभाविक ही है, बहुत सारे अफ़ग़ान हिन्दू-सिख परिवार भारत में भी आये हैं। इनमें बहुत ऐसे हैं, जिनको अभी तक भारतीय नागरिकता नहीं मिल सकी है।

जो बहुत थोड़े-से हिन्दू-सिख अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में रह रहे हैं, उनकी हालत बहुत बुरी है।

ख़ानाजंगी का सामना कर रहे अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिये भारत समेत कई देशों ने बहुत बड़ी आर्थिक मदद दी है। यह एक अच्छी बात है। लेकिन इसका एक पक्ष यह भी है कि अफ़ग़ान लोगों की मदद के लिये दिये जा रहे इस धन का कोई विशेष प्रयोग अफ़ग़ान हिन्दुओं, सिखों पर नहीं किया जा रहा, जबकि यह सबसे छोटा अफ़ग़ान अल्पसंख्यक समुदाय ही सबसे ज़्यादा नफ़रत का शिकार बना है।

हम अमेरिका जैसे मुल्क़ों से तो यह उम्मीद नहीं कर सकते कि अफ़ग़ानिस्तान को आर्थिक मदद देते वक़्त वे अफ़ग़ान हिन्दू-सिख समाज का विशेष तौर पर ध्यान रखें, लेकिन भारत सरकार से तो हमें यह उम्मीद रखनी चाहिये कि अफ़ग़ान हिन्दू-सिख समाज का विशेष तौर पर ध्यान रखा जाये।

भारत सरकार जब अफ़ग़ानिस्तान सरकार को किसी भी प्रकार की मदद दे, तो उसके साथ यह शर्त भी हो कि अफ़ग़ानिस्तान में रह रहे हिन्दुओं-सिखों की सुरक्षा हो। अफ़ग़ानिस्तान सरकार को आर्थिक मदद देते वक़्त उस धन का एक निश्चित हिस्सा अफ़ग़ान हिन्दू-सिख समाज की भलाई पर भी ख़र्च हो। अफ़ग़ानिस्तान सरकार को दी जा रही आर्थिक मदद का एक हिस्सा ज़रूरी तौर पर उन अफ़ग़ान हिन्दुओं-सिखों पर भी ख़र्च हो, जो भारत में रह रहे हैं।

साल 2014 से अब तक जो तक़रीबन 2,088 करोड़ रुपये अफ़ग़ानिस्तान को दिये गये हैं, अगर उसका बीस प्रतिशत भी अफ़ग़ान हिन्दुओं-सिखों पर ख़र्च किया जाता, तो उनकी बड़ी समस्याओं का समाधान किया जा सकता था।

भारत सरकार ने श्रीलंका सरकार को भी 2014 से अब तक 1,025 करोड़ रुपये दिये हैं। अफ़ग़ानिस्तान की तरह श्रीलंका से भी हिन्दू शरणार्थी भारत आये हैं। जो मेरा सुझाव अफ़ग़ानिस्तान के लिये है, वही सुझाव श्रीलंका के लिये भी है। श्रीलंका को दी जाने वाली आर्थिक मदद का एक निश्चित हिस्सा श्रीलंकाई हिन्दुओं पर ख़र्च होना चाहिये। श्रीलंका को दी जाने वाली आर्थिक मदद का एक निश्चित हिस्सा भारत में रह रहे श्रीलंका के हिन्दू शरणार्थियों पर भी ख़र्च होना चाहिए।

म्यांमार से निकाले गये रोहिंग्या लोगों का हमें भी वैसा ही दुःख है, जैसा पश्चिमी देशों की सरकारों को है। लेकिन हमें अफ़ग़ानिस्तान और श्रीलंका से निकाले गये हिन्दुओं का भी दुःख है। पश्चिमी देशों की सरकारों ने तो अरबों डॉलर अफ़ग़ानिस्तान पर ख़र्च करते वक़्त अफ़ग़ान हिन्दुओं, सिखों के बारे में कभी सोचा भी नहीं।

आख़िर ऐसा कब तक चलता रहेगा कि जिन देशों से हिन्दू सिखों को निकलना पड़ रहा है, भारत सरकार अपने करदाताओं की मेहनत की कमाई उन देशों को देती जाये, बिना वहाँ के हिन्दू-सिख समाज की मदद किये?












‘तहरीक-ए- लब्बैक या रसूल अल्लाह’ का धरना












‘तहरीक-ए- लब्बैक या रसूल अल्लाह’ का धरना

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में कट्टरपंथी मज़हबी जमात ‘तहरीक-ए- लब्बैक या रसूल अल्लाह’ के प्रमुख ख़ादिम हुसैन रिज़वी की रहनुमाई में पिछले तीन हफ़्तों से चल रहा धरना क़ानून मन्त्री ज़ाहिद हामिद के इस्तीफ़े के बाद आज ख़त्म कर दिया गया है।

इलेक्शन एक्ट में उम्मीदवार की तरफ़ से लिये जानी वाली शपथ में ख़त्म-ए-नबूवत से जुड़े बदलाव को लेकर पाकिस्तान में मज़हबी कट्टरपंथी गुटों ने बहुत नाराज़गी दिखाई थी। दबाव में आकर सरकार ने एक्ट में किये गये बदलाव को रद्द करके फिर से पहले वाली शपथ ही लागू कर दी थी।

लेकिन तहरीक-ए- लब्बैक या रसूल अल्लाह और ख़ादिम हुसैन रिज़वी इससे ही संतुष्ट नहीं थे। उनकी एक और प्रमुख माँग यह भी थी कि क़ानून मन्त्री ज़ाहिद हामिद को फ़ौरी तौर पर अहुदे से हटाया जाये। सरकार इसके लिये राज़ी नहीं हो रही थी।

प्रदर्शनकारी रावलपिण्डी से इस्लामाबाद जा रहे मुख्य मार्ग को फैज़ाबाद इन्टरचेंज पर रोक कर बैठे हुये थे। इससे रावलपिण्डी और इस्लामाबाद में जीवन कुछ हद तक अस्त-व्यस्त हो गया था।

सरकार साफ़ तौर पर कट्टरपंथी गुटों के दबाव में थी। महज़ दो हज़ार लोगों के इस सड़क-जाम प्रदर्शन को रोकने के लिये सरकार कोई कदम उठाने से हिचकिचाहट दिखाती रही।

अदालत से डांट खाने के बाद सरकार ने इस शनिवार धरना हटाने के लिये पुलिस का इस्तेमाल किया। कुल छह लोगों की मौत हो गयी। लाहौर, पेशावर, और कराची समेत कई और जगहों पर भी प्रदर्शन होने लगे। कल इतवार को भी हिंसा की घटनाएं होती रहीं। इसके बाद इस्लामाबाद के इस धरने में प्रदर्शनकारियों की तादाद बढ़ कर तक़रीबन पाँच हज़ार हो गयी थी।

अफ़वाहों को फैलने से रोकने के लिये सरकार ने पूरे पाकिस्तान में प्राइवेट टीवी चैंनलों और फेसबुक समेत सोशल मीडिया पर फ़ौरी तौर पर पाबन्दी लगा दी।

सरकार ने चाहे फ़ौज को बुला लिया था, लेकिन फ़ौज ने लोगों के ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया।

फ़ौज के इशारे को समझते हुये दबाव में आई सरकार ने प्रदर्शनकारियों की माँगों के आगे झुकना ही सही समझा और क़ानून मन्त्री ज़ाहिद हामिद ने अपने अहुदे से इस्तीफ़ा दे दिया। प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ सभी मुकद्दमे वापिस ले लिये जाने की मांग भी सरकार ने मान ली है। साथ ही इलेक्शन एक्ट में ख़त्म-ए-नबूवत से जुड़े बदलाव के लिये ज़िम्मेदार लोगों की निशानदेही करके उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिये एक समिति बनाने का भी ऐलान सरकार ने किया है। प्राइवेट टीवी चैंनलों और फेसबुक समेत सोशल मीडिया पर लगी पाबन्दी हटा ली गयी है।

ज़ाहिर सी बात है कि पाकिस्तान में कम ही जानी जाती जमात ‘तहरीक-ए- लब्बैक या रसूल अल्लाह’ इस धरने की कामयाबी के बाद अब पहले से कहीं ज़्यादा ताक़तवर हो सकती है। इसके रहनुमा ख़ादिम हुसैन रिज़वी अपने बेहद भड़काऊ भाषणों के लिये जाने जाते हैं। धरने की कामयाबी के बाद लोगों में उनका प्रभाव और बढ़ने की सम्भावना है।

ख़ादिम हुसैन रिज़वी के बुलन्द हौसले को इसी बात से जाना जा सकता है कि आज जब रिज़वी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे, तो उनको टीवी चैनलों पर लाइव न दिखाये जाने से नाराज़ होकर उन्होंने पत्रकारों को कुछ देर के लिये बन्धक भी बना लिया। टीवी चैनल सरकारी पाबन्दी की वजह से उनको लाइव नहीं दिखा सकते थे। सुरक्षा बलों के दख़ल के बाद ही पत्रकारों को छोड़ा गया।












धर्मांतरण की धमकी












(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

भारत में धर्मांतरण की धमकी अब दबाव डालने का साधन बनती जा रही है। ऐसी धमकी परम्परागत भारतीय समाज पर दबाव बनाने में कामयाब होती भी दिख रही है।

या शायद भारतीय समाज को, यह इस तरह कह लीजिये कि हिन्दू-सिख समाज को समझने में मैं ही कोई ग़लती कर रहा हूँ। शायद बात ऐसी है कि मैं ख़ुद परम्परागत हिन्दू-सिख समाज की मर्यादा को अपने कन्धों पर उठाये घूमता हूँ और यह समझ नहीं पा रहा कि परम्परागत हिन्दू-सिख समाज और ‘आधुनिक’ हिन्दू और सिख समाज में कुछ अन्तर है।

कोई हिन्दू-सिख अपना धर्म छोड़कर कोई दूसरा मज़हब अपनाना चाहता था, तो परम्परागत हिन्दू-सिख समाज कोई शोर नहीं मचाता था। बस उसके लिये अपने दरवाज़े बन्द कर लेता था। तब शायद उनको वोट की राजनीति की परवाह नहीं होती थी। तब उनको अपने-आप पर, अपने धर्म-सिद्धांतों पर पूरा भरोसा हुआ करता था।

आज वोट की राजनीति ने ‘आधुनिक’ हिन्दू-सिख समाज को यह अहसास दिलाना शुरू कर दिया है कि वोटों के इस युग में सिद्धांत नहीं, बल्कि संख्या-बल ही ज़्यादा ताक़तवर है।

तीसरी गोल-मेज़ कॉन्फ्रेंस की असफलता के बाद उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने 1932 में ब्रिटिश इण्डिया के लिये ‘कम्युनल अवार्ड’ (Communal Award) दिया। इस कम्युनल अवार्ड ने एक ‘भारतीय समाज’ को ‘अगड़ी जाति, ‘पिछड़ी जाति, ‘मुसलमान’, ‘सिख’, ‘भारतीय ईसाई’, ‘एंग्लो-इण्डियन’, और ‘दलित’ में बाँट कर रख दिया।

उस वक़्त यरवदा जेल में बन्द गान्धी जी ने कम्युनल अवार्ड का विरोध किया, लेकिन डॉक्टर भीमराव अंबेडकर साहिब से ‘पूना पैक्ट’ कर के ही संतुष्ट हो गये।

1932 के कम्युनल अवॉड से बंटा भारतीय समाज 1947 में दो अलग-अलग देशों के रूप में बंट कर ही रहा।

बीसवीं सदी ने देखा कि मज़हबों और जातियों की वजह से हमारा समाज बंट गया। समाज के इस बटवारे को सरकारी मानता प्राप्त है। समाज के इस तरह के बटवारे ने हमें अंतर्द्वंद्व से मुक्त होने ही नहीं दिया।

समाज के इस बटवारे से हिन्दू, सिख समाज के कर्णधार त्रस्त हैं। समाज के कुछ लोग जब ‘धर्मांतरण’ करके समाज को छोड़ देने की धमकी देते हैं, तो कर्णधार भयभीत हो जाते हैं।

बात की भूमिका लम्बी हो गयी है। बात को संक्षेप करता हूँ।

पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने गुरुद्वारा गुरुसर, मधोके बराड़ के 15 कर्मचारियों को हटा दिया। हटाये गये इन कर्मचारियों ने धमकी दी है कि अगर उन्हें नौकरियों पर दुबारा नहीं रखा गया, तो वे अपने परिवारों समेत सिख धर्म को छोड़कर दूसरा मज़हब धारण कर लेंगे और सिख धार्मिक चिन्ह श्री अकाल तख़्त साहिब को लौटा देंगे।

यह धमकी उन्होंने श्री अकाल तख़्त के जत्थेदार साहिब को मिलकर भी दी है।

धर्म का सम्बन्ध अध्यात्म से होता है। धर्म को आध्यात्मिक लाभ हासिल करने के लिये धारण किया जाता है, नौकरियाँ प्राप्त करने के लिये नहीं। महज़ नौकरी की वजह से धर्मांतरण करना या धर्मांतरण की धमकी देना किसी धार्मिक व्यक्ति का काम नहीं है।

इतिहास में एक ज़िक्र मिलता है। श्री आनंदपुर साहिब की आख़िरी लड़ाई में आनन्दपुर साहिब शहर को पिछले कई महीनों से दुश्मन सेना ने घेरा हुआ था। बहुत सारे सिख लम्बी लड़ाई से तंग आ चुके थे। वे अपने घरों को वापस जाना चाहते थे। कई सिख श्री गुरु गोबिंद सिंघ साहिब से निवेदन कर रहे थे कि लड़ाई ख़त्म की जाये।

गुरु साहिब ने कहा कि जो यहाँ से जाना चाहें, वह जा सकते हैं, लेकिन जाने से पहले वे यह लिख कर दे जाएं कि ‘आप हमारे गुरु नहीं, हम आपके सिख (शिष्य) नहीं।’

इतिहास कहता है कि उन सिखों ने गुरु साहिब को यह लिखत में दिया, “आप हमारे गुरु नहीं, हम आपके सिख (शिष्य) नहीं”। और, वे गुरु साहिब को छोड़कर चले गये।

भारतीय परम्परा हमें यह आज़ादी देती है कि हम अपनी मर्ज़ी से धार्मिक वजह से किसी पन्थ में शामिल भी हो सकते हैं और उसको छोड़ भी सकते हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति में किसी पन्थ को धारण करने या छोड़ने के पीछे धार्मिक कारण न होकर आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं। आर्थिक या राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिये धर्मांतरण को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा है। धर्मांतरण की धमकी अब दबाव डालने का साधन बनती जा रही है।

धार्मिक नेताओं पर अब दबाव है। क्या वे इस दबाव के आगे झुक जाएंगे?

News Source:

(1). http://www.tribuneindia.com/mobi/news/punjab/sgpc-sacks-15-back-door-employees-posted-in-ajnala/502581.html
(2). http://www.tribuneindia.com/mobi/news/punjab/sacked-sgpc-employees-knock-on-akal-takht-door/503136.html