(अमृत पाल सिंघ अमृत)
जब कभी दोस्त और दोस्ती की, मित्र और मित्रता की बात करनी हो, तो श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का ज़िक्र आ ही जाता है।
सुदामा और कृष्ण बचपन के मित्र थे। वक़्त बदला। अब श्री कृष्ण राजा हो गये। सुदामा एक ग़रीब इन्सान की ज़िन्दगी जीने लगे। फिर ऐसा वक़्त आया, जब अपनी पत्नी के ज़ोर देने पर सुदामा श्री कृष्ण के राजमहल के द्वार पर जा पहुंचे।
भाई गुरदास जी ने लिखा है: –
बिप सुदामा दालदी बाल सखाई मित्र सदाए॥
लागू होई बाह्मणी मिल जगदीस दलिद्र गवाए॥
चलिआ गिणदा गटीआं कयों कर जाईए, कौण मिलाए॥
पहुता नगर दुआरका सिंघ दुआर खलोता जाए॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।
ਬਿਪ ਸੁਦਾਮਾ ਦਾਲਦੀ ਬਾਲ ਸਖਾਈ ਮਿਤ੍ਰ ਸਦਾਏ ॥
ਲਾਗੂ ਹੋਈ ਬਾਮ੍ਹਣੀ ਮਿਲ ਜਗਦੀਸ ਦਲਿਦ੍ਰ ਗਵਾਏ ॥
ਚਲਿਆ ਗਿਣਦਾ ਗਟੀਆਂ ਕਯੋਂ ਕਰ ਜਾਈਏ ਕੌਣ ਮਿਲਾਏ ॥
ਪਹੁਤਾ ਨਗਰ ਦੁਆਰਕਾ ਸਿੰਘ ਦੁਆਰ ਖਲੋਤਾ ਜਾਏ ॥ (ਵਾਰ ੧੦, ਭਾਈ ਗੁਰਦਾਸ ਜੀ)
भीतर बैठे श्री कृष्ण को इतलाह दी गयी कि कोई सुदामा नाम का व्यक्ति आया है। कहता है, “कृष्ण से मिलना है”।
सुना। श्री कृष्ण ने सुना। सुना नाम सुदामा का। सुना नाम अपने मित्र का। सुना नाम अपने बचपन के सखा का।
“सुदामा मुझसे मिलने आये हैं।“
अपना सिंहासन छोड़ा कृष्ण ने। दूर से देखा कृष्ण ने। दंडवत प्रणाम किया। कृष्ण ने दंडवत प्रणाम किया। दोस्त कृष्ण ने दंडवत प्रणाम किया अपने मित्र सुदामा को। अपने मित्र की प्रदक्षिणा की कृष्ण ने। राजा कृष्ण ने नहीं, मित्र कृष्ण ने। सुदामा के चरण छू कर गले से लगाया। सुदामा के पैर धो कर अपने सिंहासन पर बैठाया।
भाई गुरदास जी ने लिखा है: –
दूरहूं देख डंडउत कर छड सिंघासण हरि जी आए॥
पहिले दे परदखणा पैरीं पै के लै गल लाए॥
चरणोदक लै पैर धोए सिंघासण उपर बैठाए॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।
ਦੂਰਹੁੰ ਦੇਖ ਡੰਡਉਤ ਕਰ ਛੱਡ ਸਿੰਘਾਸਣ ਹਰਿ ਜੀ ਆਏ ॥
ਪਹਿਲੇ ਦੇ ਪਰਦਖਣਾ ਪੈਰੀਂ ਪੈ ਕੇ ਲੈ ਗਲ ਲਾਏ ॥
ਚਰਣੋਦਕ ਲੈ ਪੈਰ ਧੋਇ ਸਿੰਘਾਸਣ ਉਪਰ ਬੈਠਾਏ ॥
और जब दो सच्चे मित्र मिलें, जब दो असली दोस्त इकट्ठा हो बैठें, तो गुरु की बात करेंगे, गुरु की सेवा की बात करेंगे: –
भाई गुरदास जी ने लिखा है: –
पुछे कुसल पिआर कर गुर सेवा दी कथा सुणाए॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।
ਪੁਛੇ ਕੁਸਲ ਪਿਆਰ ਕਰ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਦੀ ਕਥਾ ਸੁਣਾਏ ॥
किसी राजा को क्या ख़ुशी होगी वो तंदुल, वो चावल तोहफ़े में ले कर? पर सच्चे मित्र को ख़ुशी मिलती है इस तोहफ़े से भी। कृष्ण ने वो चावल खाये और ख़ुश हुये। जब विदा करने का वक़्त आया, तो श्री कृष्ण ने पहले से ही सुदामा के घर ज़रूरत की हर वस्तु पहुंचा दी।
भाई गुरदास जी ने लिखा है: –
लै के तंदल चबिओन, विदा करे, अगे पहुचाए॥
चार पदारथ सकुच पठाए॥९॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।
ਲੈਕੇ ਤੰਦਲ ਚਬਿਓਨ ਵਿਦਾ ਕਰੇ ਅਗੇ ਪਹੁਚਾਏ ॥
ਚਾਰ ਪਦਾਰਥ ਸਕੁਚ ਪਠਾਏ ॥੯॥ (ਵਾਰ ੧੦, ਭਾਈ ਗੁਰਦਾਸ ਜੀ)।
गुरुवाणी में भी आया है: –
मिलिओ सुदामा भावनी धारि सभु किछु आगै दालदु भंजि समाएआ॥४॥ (११९१, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਮਿਲਿਓ ਸੁਦਾਮਾ ਭਾਵਨੀ ਧਾਰਿ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਗੈ ਦਾਲਦੁ ਭੰਜਿ ਸਮਾਇਆ ॥੪॥
आज जब हम अपने समाज की ओर देखते हैं, तो ज़्यादातर यही देखने में आता है कि अगर कोई एक कथित मित्र अमीर हो जाए, तो वह अपने ग़रीब मित्र से कोई भी सम्पर्क नही रखता। कथित अमीर दोस्त अपने ग़रीब दोस्त की कोई मदद नही करना चाहता। ऐसा अक्सर देखने में आता है।
श्री कृष्ण के ज़माने में ही दानवीर कर्ण भी हुये। संसार की नज़र से देखो, तो लगता है कि कर्ण सचमुख दुर्योधन के परम मित्र थे। दुर्योधन के बुरे कामों में कर्ण ने साथ दिया। धर्म की नज़र से देखो, तो कर्ण दुर्योधन के सच्चे दोस्त न बन सके। वे दुर्योधन को बुरे कामों से न रोक सके। दुर्योधन के बुरे कामों का अंजाम भी बुरा हुया। दुर्योधन भी युद्ध में मारा गया, कर्ण भी युद्ध में मारे गए।
जब हम अपने आस-पास देखते हैं, तो पता चलता है कि ज़्यादातर दोस्त मित्र खाने पीने के ही साथी होते हैं। कोई ख़ुशी का मौका आया, तो कहेंगे, “चल शराब मँगवा, शराब पीएंगे”। शादी विवाह का मौका, तो “चल शराब ला, पार्टी दे”। अच्छी नौकरी लगी, “चल पार्टी दे”। बच्चे हुये, “चल पार्टी दे”। नया घर बनवाया, “चल पार्टी दे”। नयी गाड़ी ली, “चल पार्टी दे”। कुल मिला कर ये, कोई भी मौका मिले सही, ऐसे बहुत से दोस्त, बहुत से मित्र खाने पीने की ही फ़ुर्माइश करते दिखते हैं।
स्त्री को या दोस्तों-मित्रों को ख़ुश करने की कोशिश में वह पाप करता है, जिस की वजह से आख़िर वह बंधा हुया नर्क में ही जाता है। गुरु ग्रंथ साहिब में ज़िक्र आया है: –
कामणि लोड़े सुएना रूपा मित्र लुड़ेनि सु खाधाता॥ नानक पाप करे तिन कारणि जासी जमपुरि बाधाता॥
(१५५, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਕਾਮਣਿ ਲੋੜੈ ਸੁਇਨਾ ਰੁਪਾ ਮਿਤ੍ਰ ਲੁੜੇਨਿ ਸੁ ਖਾਧਾਤਾ ॥ ਨਾਨਕ ਪਾਪ ਕਰੇ ਤਿਨ ਕਾਰਣਿ ਜਾਸੀ ਜਮਪੁਰਿ ਬਾਧਾਤਾ ॥
ये जो संसार के परिवार हैं, मित्र हैं, भाई हैं, ये सब अपने मतलब के लिए हमें आ मिलते हैं। जिस दिन उनका स्वार्थ, उनका मतलब हम से पूरा न होगा, उस दिन कोई हमारे नज़दीक भी न आएगा।
जो संसारै के कुटंब मित्र भाई दीसहि मन मेरे ते सभि अपनै सुआए मिलासा॥
जितु दिनि उन का सुआउ होए न आवै तितु दिनि नेड़े को न ढुकासा॥
मन मेरे अपना हरि सेवि दिनु राती जो तुधु उपकरै दूखि सुखासा॥३॥
(७६०, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਜੋ ਸੰਸਾਰੈ ਕੇ ਕੁਟੰਬ ਮਿਤ੍ਰ ਭਾਈ ਦੀਸਹਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਤੇ ਸਭਿ ਅਪਨੈ ਸੁਆਇ ਮਿਲਾਸਾ ॥
ਜਿਤੁ ਦਿਨਿ ਉਨ੍ ਕਾ ਸੁਆਉ ਹੋਇ ਨ ਆਵੈ ਤਿਤੁ ਦਿਨਿ ਨੇੜੈ ਕੋ ਨ ਢੁਕਾਸਾ ॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਅਪਨਾ ਹਰਿ ਸੇਵਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਜੋ ਤੁਧੁ ਉਪਕਰੈ ਦੂਖਿ ਸੁਖਾਸਾ ॥੩॥
जिन लोगों को इन नकली दोस्तों की, स्वार्थी मित्रों की हक़ीक़त का अहसास हो गया, वे किसी सच्चे दोस्त की, किसी असली मित्र की तलाश में लग जाते हैं। वे कहते हैं: –
मित्र घणेरे करि थकी मेरा दुखु काटै कोए॥
(३७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਮਿਤ੍ਰ ਘਣੇਰੇ ਕਰਿ ਥਕੀ ਮੇਰਾ ਦੁਖੁ ਕਾਟੈ ਕੋਇ ॥
मैं बहुत मित्र बना चुका। अब कोई आये, मेरे अन्दर का दु:ख काट दे, मेरे अन्दर का दु:ख ख़त्म कर दे।
दु:ख कटे कैसे? दु:ख दूर हो कैसे? गुरुवाणी ने कहा, “प्रभु प्रियतम के मिलने से दु:ख दूर हुया।” पर, प्रभु प्रियतम से मिलना कैसे होता है? गुरुवाणी ने कहा, “सबदि मिलावा होए॥ गुरु के शब्द के द्वारा, गुरु के उपदेश की द्वारा प्रभु से मिलाप होता है।
मित्र घणेरे करि थकी मेरा दुखु काटै कोए॥
मिलि प्रीतम दुखु कटिआ सबदि मिलावा होए॥
(३७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਮਿਤ੍ਰ ਘਣੇਰੇ ਕਰਿ ਥਕੀ ਮੇਰਾ ਦੁਖੁ ਕਾਟੈ ਕੋਇ ॥
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਦੁਖੁ ਕਟਿਆ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥
इन्सान को धर्म की राह से भटकाने वाला उसी का मन होता है। यही मन अगर इन्सान के अपने बस में हो जाए, तो यह बहुत अच्छा दोस्त, मित्र भी हो जाता है। इसलिए, गुरुवाणी में मन को मित्र कह कर भी बुलाया गया है: –
सुणि मन मित्र पिआरिआ मिलु वेला है एह॥
जब लगु जोबनि सासु है तब लगु एहु तनु देह॥
बिनु गुण कामि न आवई ढहि ढेरी तनु खेह॥१॥
(२०, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਸੁਣਿ ਮਨ ਮਿਤ੍ਰ ਪਿਆਰਿਆ ਮਿਲੁ ਵੇਲਾ ਹੈ ਏਹ ॥
ਜਬ ਲਗੁ ਜੋਬਨਿ ਸਾਸੁ ਹੈ ਤਬ ਲਗੁ ਇਹੁ ਤਨੁ ਦੇਹ ॥
ਬਿਨੁ ਗੁਣ ਕਾਮਿ ਨ ਆਵਈ ਢਹਿ ਢੇਰੀ ਤਨੁ ਖੇਹ ॥੧॥
सच्चे दोस्त, सच्चे मित्र वे हैं, जो हमें हरि का नाम याद दिलाते हैं: –
ओए साजन ओए मीत पिआरे॥
जो हम कउ हरि नामु चितारे॥
(७३९, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਓਇ ਸਾਜਨ ਓਇ ਮੀਤ ਪਿਆਰੇ ॥
ਜੋ ਹਮ ਕਉ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਚਿਤਾਰੇ ॥੧॥
अपने ही मन की करने वाले मित्रों के विपरीत, बुरे रास्ते पर ले जाने वाले नकली दोस्तों के उलट, असली मित्र वे हैं, जिन को देख कर मन के बुरे ख़्याल ख़त्म हो जाएँ। गुरुवाणी ने कहा कि मैं ढूँढता हूँ सारे संसार में, ऐसे मित्र विरले हैं, बहुत कम हैं।
जिना दिसंदडिआ दुरमति वंझे मित्र असाडढ़े सेई॥
हउ ढूढेदी जगु सबाएआ जन नानक विरले केई॥
(५२०, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।
ਜਿਨਾ ਦਿਸੰਦੜਿਆ ਦੁਰਮਤਿ ਵੰਞੈ ਮਿਤ੍ਰ ਅਸਾਡੜੇ ਸੇਈ ॥
ਹਉ ਢੂਢੇਦੀ ਜਗੁ ਸਬਾਇਆ ਜਨ ਨਾਨਕ ਵਿਰਲੇ ਕੇਈ ॥੨॥
जिना दिसंदडिआ – जिन को देखने से, जिन का दीदार हो जाने से,
दुरमति वंझे – दुरमति दूर हो जाए, बुरे ख़्याल ख़त्म हो जाएँ,
मित्र असाडढ़े सेई- वे ही हमारे मित्र हैं।
हउ ढूढेदी जगु सबाएआ- मैंने सारे संसार में उनको ढूंढा है, सारे संसार में ढूँढता हूँ।
जन नानक विरले केई- (गुरु) नानक (देव जी कहते हैं) कि (ऐसे सच्चे दोस्त) बिरले ही हैं, कोई कोई ही सच्चा दोस्त बनता है।
दुनिया की इस बहुत बड़ी भीड़ में अगर सिर्फ़ एक ही सच्चा दोस्त मिल जाए, तो किसी और रिश्ते की ज़रूरत ही नही रहती।
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